ज्ञान प्रदान करने वाला गुरू है। कबीरदास कहते हैं कि गुरू और पारस पत्थर में अंतर है। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, लेकिन गुरू, शिष्य को अपने समान महान बना लेता है। गुरू को गुरू इसलिए कहा जाता है कि वह शिष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। गुरू की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है और गुरू की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं । शास्त्रों में गुरू को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों में स्वीकार किया गया है। गुरू विष्णु भी है, क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करते हैं। गुरू साक्षात महेश्वर भी हैं, क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषाों का संहार भी करते हैं। कबीरदास कहते हैं कि भगवान के रूठने पर गुरू की शरण में जाया जा सकता है, लेकिन गुरू रूठ गए तो फिर कहीं भी शरण मिलना संभव नहीं। जिस व्यक्ति को सदगुरू मिल जाते हैं उसके जीवन में कष्ट नहीं आते, और कष्ट आता भी है तो वह विचलित नहीं होता। उसका पूरा जीवन धन्य धन्य हो जाता है। गुरू ऐसा मंत्र अपने शिष्यों को देता है, जिसकी मदद से शिष्य अपने जीवन में आने वाली तमाम पहेलियों को न केवल सफलतापूर्वक सुलझा लेता है बल्कि उनका उनका भरपूर लाभ भी उठा लेता है। व्यक्ति को अपना जीवन स्वर्ग बनाना है तो उसे सबसे पहले एक योग्य गुरू की खोज शुरू कर देनी चाहिए। कबीरदास कहते हैं कि अच्छा हुआ कि सदगुरू मिल गए, अन्यथा बड़ा अहित, हो जाता। आगे इसी प्रसंग में वह लिखते हैं कि सदगुरू की महिमा अपरंपार है। उन्होंने शिष्य पर अनंत उपकार किए हैं। उन्होंने शिष्य की विषय वासनाओं से बंद आंखों को ज्ञानचक्षु द्वारा खोलकर उसे शांत हीं नहीं अनंत तत्व ब्रहम का दर्शन भी कराया है। शिक्षक चाहे तो एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकता है, जिसमें ऊॅच नीच , भेदभाव, ईष्र्या , वैमनस्य आदि का कोई स्थान न हो। आज प्राचीन गुरू शिष्य परंपरा भले ही समाप्त होती दिखाई दे रही हो, लेकिन शिक्षक का कर्तव्य अपनी जगह कायम है। आज भी शिक्षक अपने विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करते हैं और उनकी उलझनों को दूर करते हैं। शिक्षक आज भी अपने विद्यार्थियों में साहस, धैर्य , सहिष्णुता , ईमानदारी जैसे गुणों का संचार करते हैं। जैसे सूर्य के ताप से तपती भूमि को वर्षा से शीतलता और फसल पैदा करने की ताकत मिलती है , वैसे ही गुरू चरणों में उपस्थित शिष्यों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
साभार - दैनिक जागरण
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