निर्माण का काम बहुत धीमा चल रहा है। अल्मोड़ा के आस-पास के पहाड़ी ढाल वाले इलाकों में यह सामान्य बात है। फिर यह तो बहुत बड़ा कैंपस है, जहां एक मेडिकल कॉलेज की विशाल इमारत बन रही है। पहाड़ी इलाकों में मजदूर अमूमन स्थानीय होते हैं, मगर बड़ी परियोजनाओं के लिए अक्सर बाहर से मजदूर लाए जाते हैं। इस निर्माणाधीन मेडिकल कॉलेज के ज्यादातर मजदूर बिहार और ओडिशा के हैं। निर्माण स्थल के पास ही झोंपड़ियों में ये अपने परिवार के साथ रहते हैं, जिनमें कई छोटे-छोटे बच्चे हैं। छह और उससे अधिक उम्र के सभी बच्चे पास के गांव लामा सिंह के सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाते हैं।
प्रवासी मजदूरों के बच्चे बड़ी मुश्किलों के बीच बड़े होते हैं। जिन आर्थिक दुश्वारियों से उन्हें जूझना होता है, वे परिवार के थोड़े-थोड़े दिनों पर बोरिया-बिस्तर समेटने के कारण और गहरी हो जाती हैं। ऐसे परिवारों के ज्यादातर बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देखते और जो ऐसा करते भी हैं, वे स्कूल को अलग-थलग करने वाली जगह के ’रूप में पाते हैं। ऐसे बच्चों को पढ़ाना और इनकी’निगरानी करना शिक्षकों और स्कूलों की सबसे बड़ी चुनौतियों में एक है।
लामा सिंह गांव के प्राइमरी स्कूल के दो शिक्षकों में एक हैं राधा बल्लभ। पिछले कुछ महीनों में उनके स्कूल के छात्रों की संख्या 50 से बढ़कर 70 हो गई है। ये सभी नए विद्यार्थी निर्माणाधीन मेडिकल कॉलेज के मजदूरों के हैं। बल्लभ और उनके साथी शिक्षक नियमित रूप से इन मजदूरों की झोंपड़ियों में आते रहते हैं, ताकि उनमें पल रहे सभी बच्चों का दाखिला हो और वे स्कूल में पढ़ने आ सकें।उन्होंने गांव से ही दो ऐसे लोगों का बंदोबस्त किया है, जो इन बच्चों को उनके घर से स्कूल तक पहुंचा दें। हमारे चारों तरफ खेल रहे बच्चों के शोर के बीच बल्लभ अपने छात्रों की उपलब्धियां गिनाते हैं। और जिन बच्चों ने उन्हें सबसे अधिक गौरवान्वित किया है, वे प्रवासी मजदूरों के बच्चे हैं। वह कहते हैं कि ये बच्चे वाकई अद्भुत हैं। ये काफी मन लगाकर पढ़ाई करते हैं, इनका बर्ताव जिम्मेदाराना है और ये काफी खुशमिजाज बच्चे हैं। पिछले तीन वर्षों में उन्होंने इन बच्चों के बारे में यह अनुभव किया है। बल्लभ पास से गुजर रहे दो बच्चों को आवाज देते हैं। हमने उनसे बात की और बल्लभ ने उनके बारे में जो दावे किए थे, उसे सही पाया।
आखिर इन प्रवासी छात्रों के साथ उनका अनुभव अलग क्यों है? आखिर वह अपने स्कूल में इतना अच्छा कैसे कर रहे हैं, जबकि अन्य शिक्षक ऐसे बच्चों की निगरानी को बहुत कठिन मानते हैं? राधा बल्लभ इसका अत्यंत सटीक उत्तर देते हैं, ‘ऐसे बच्चों के ऊपर स्कूल में कुछ अतिरिक्त ध्यान देने की जरूरत होती है, क्योंकि अपनी जिंदगी में वे काफी कठिनाइयां झेल रहे होते हैं। इसके अलावा और कुछ अलग नहीं है। मेरा मानना है कि सभी बच्चे अच्छे हैं और वे सीख सकते हैं, जबकि कई शिक्षकों की धारणा है कि ये बच्चे सामान्य नहीं हैं। और यही सबसे बड़ी वजह है।
ये चंद पंक्तियां गहरी समझदारी और स्कूली शिक्षा पर दशकों के शोध का सार हैं। स्कूली शिक्षा के कई प्रेरक व निर्धारक तत्व हैं। शिक्षक की खूबियां, शिक्षण-संसाधन, स्कूल की संस्कृति, सोहबत और घर का माहौल जैसे तत्व बच्चों की सीखने की क्षमता को गहरे प्रभावित करते हैं। लेकिन इन कारकों में सबसे महत्वपूर्ण कारक है, शिक्षकों का अपने छात्रों में भरोसा। अगर एक शिक्षक यह मानता है कि उचित हस्तक्षेप से सभी छात्र सीख सकते हैं, भले ही वे भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमियों से आते हैं, तो इसका शिक्षण कर्म पर सकारात्मक असर पड़ता है। दूसरी तरफ, अगर एक शिक्षक यह मानता है कि किसी छात्र में सीखने की क्षमता कम है, तो इसका सीधा नकारात्मक असर वास्तविक शिक्षण पर पड़़ता है। यह सिर्फ घातक ‘पिगमालियन इफेक्टश् ही नहीं है, बल्कि छात्रों की अयोग्यता के ऊपर नाकामी का बोझ डालकर शिक्षक अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला भी झाड़ लेते हैं। इस प्रवृत्ति का सीधा असर उनके प्रयासों पर पड़ता है और उनके भीतर नकारात्मकता निरंतर बढ़ती चली जाती है। अफसोस, इस बिंदु पर ध्यान ही नहीं दिया जाता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
अनुराग बेहर
सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
साभार हिन्दुस्तान
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