पिछले दस साल में निजी स्कूलों की संख्या में 75 प्रतिशत का इजाफा हुआ है, जबकि सरकारी स्कूलों की संख्या में महज 15 प्रतिशत। बच्चों के दाखिले में हुए बदलाव तो और भी नाटकीय हैं। वर्ष 2006, में सिर्फ 25 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में जाते थे, लेकिन 2016 तक आते-आते यह आंकड़ा 38 प्रतिशत हो गया है। दूसरी तरफ, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या में सात प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट आई है। सरकारी स्कूलों में अब सिर्फ गरीब तबकों के बच्चे बचे हैं। मैं ऐसे अभिभावकों से मिला हूं, जो यह कहते हैं कि यदि वे बच्चे को निजी स्कूल नहीं भेजेंगे, तो बिरादरी के लोग उनको कंजूस कहेंगे। ये कोई पैसे वाले लोग नहीं हैं। ये गांव के पंसारी, गाड़ी चलाने वाले, छोटे किसान वगैरह हैं। ये अपनी आमदनी का 12-15 प्रतिशत बेटे को निजी स्कूल भेजने के लिए खर्च कर देते हैं।
निजी स्कूलों का चलन तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन कई सरकारी स्कूल अब भी उन्हें चुनौती देते दिखाई देते हैं।
इसके बावजूद मेरी उम्मीद उन 90 से भी ज्यादा स्कूलों में मेरी यात्रा ने जगाई है, जो उत्तरकाशी, सिरोही, उधमसिंहनगर और यादगीर जैसी दूरदराज की जगहों पर हैं। ये स्कूल भले ही दस लाख सरकारी स्कूलों के प्रतिनिधि न हों, मगर ग्रामीण भारत में बेहतरीन काम कर रहे बहुत सारे अच्छे स्कूलों की नुमाइंदगी तो ये जरूर करते हैं। एक के बाद एक कई स्कूलों में मैंने बेहद प्रतिबद्ध शिक्षक देखे, जो कक्षा के आखिरी बच्चे तक को यथासंभव अच्छी से अच्छी तालीम देना चाहते थे। उनकी बातों में निश्चित ही सहज पारदर्शिता थी, बेशक उन्होंने अपनी निराशाओं को भी सामने रखा। उन्होंने विषय के ज्ञान की अपनी सीमाओं को भी स्वीकार किया, अंग्रेजी न पढ़ा पाने की अपनी असह्य अयोग्यता की बात बताई, संसाधनों के भारी संघर्ष की बात कही, लेकिन इन सबके बीच उनमें स्कूल से गहरे जुड़ाव और उस पर गर्व का भाव लगातार मौजूद रहा। एक शिक्षक ने तो चालू मुहावरे को पलटते हुए मुझसे कहा, ‘मेरी बात गांठ बांध लीजिए, एक दिन ये बच्चे निजी स्कूलों से वापस हमारे स्कूलों की तरफ ही आएंगे।
मैं जिन स्कूलों में गया, उनमें से कई तो केस स्टडी करने लायक हैं, जिनसे बेहतर स्कूल नेतृत्व, स्कूल संस्कृति, शिक्षण की गुणवत्ता, बच्चों में सीखने के साक्ष्य और अपने पेशेवर विकास के प्रति शिक्षकों की प्रतिबद्धता के तमाम लक्षणों का मिला-जुला रूप उभरता है। ऐसा नहीं कि हर स्कूल में ये सभी लक्षण हैं, लेकिन इनमें से कई लक्षण सभी स्कूलों में देखने को मिलते हैं। इस बात को ध्यान में रखना भी जरूरी है कि हालात ग्रामीण सरकारी स्कूलों के खिलाफ हैं। इन स्कूलों में सामाजिक-आर्थिक तौर पर सबसे पिछड़े वर्गों के बच्चे पढ़ते हैं। लगभग 50 प्रतिशत बच्चे पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी होते हैं, जिनके घर पर पढ़ने-लिखने का माहौल नहीं होता।
स्कूल के प्रधानाध्यापक किसी संस्था के सीईओ जैसी भूमिका निभाते हैं। वे एक साथ तीन काम करते हैं। अपने स्कूल के उद्देश्यों के बारे में बातचीत, आश्वस्त करना कि बच्चे स्कूल में सुरक्षित रहेंगे, अच्छे से सीखेंगे भी, और यह सुनिश्चित करना कि मां-बाप स्कूल के कार्यक्रमों में शामिल हों और अपने बच्चों को सीखते हुए, आगे बढ़ते हुए देखें। क्या बच्चे सचमुच बेहतर सीख रहे हैं? हमने कक्षा में विविध प्रकार की गतिविधियां और बच्चों के पोर्टफोलियो देखे। कई शिक्षक सतत व्यापक मूल्यांकन को सही मायने में लागू करते हैं और बच्चे के पोर्टफोलियो में विस्तार से सुझाव दर्ज करते हैं। लगभग हर स्कूल में कक्षा के कोने की एक अलमारी लाइब्रेरी का काम करती है। बच्चों को इसके लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि वे वहां से किताबें लें और पढ़कर सुबह की सभा में उस पर बातचीत भी करें। इन स्कूलों ने सुबह की सभा को बच्चों के सर्वांगीण विकास का एक महत्वपूर्ण जरिया बना दिया है। पिछले 10 साल का एक बड़ा सुधार यह है कि अब ज्यादा शिक्षक रोजाना के क्रिया-कलापों पर डायरी लिखते हैं। कुछ शिक्षकों की डायरियां तो इतनी समृद्ध हैं कि उनको शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में अनिवार्य पठन सामग्री बना देना चाहिए।
अगर स्कूल सही मायने में समाज का छोटा रूप हैं, तो हम चाहेंगे कि समाज इन स्कूलों जैसा ही हो, जहां समता व गुणवत्ता अपनी सही जगह हासिल कर पाए हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
एस गिरिधर
सीओओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
साभार हिन्दुस्तान
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