कायांतरण से कितनी बदलेगी उच्च शिक्षा

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के भविष्य को लेकर एक दशक से चली आ रही ऊहापोह पर विराम लगने को है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यूजीसी को भंग करके उसकी जगह पर भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) बनाने के लिए एक ड्राफ्ट ऐक्ट का मसौदा जारी किया है और इस पर 7 जुलाई, 2018 तक शिक्षाविदों, संबंधित पक्षों और आम लोगों की राय मांगी है। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर का कहना है कि ड्राफ्ट ऐक्ट संसद के मानसून सत्र में पेश किया जाएगा और यूजीसी को भंग कर एचईसीआई बनाने का फैसला मोदी सरकार की ‘न्यूनतम शासन- अधिकतम सुशासनश् की सोच पर आधारित है। मंत्रालय के अनुसार, इस नए आयोग को उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों को दी जाने वाली ग्रांट जारी करने का अधिकार नहीं होगा, मगर उच्च शिक्षा नियमन में पारदर्शिता बढ़ाकर इंस्पेक्टर राज को खत्म किया जाएगा।


प्रस्तावित एचईसीआई के ड्राफ्ट ऐक्ट में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की जिम्मेदारी नई नियामक एजेंसी को सौंपी गई है। एचईसीआई को खराब गुणवत्ता वाली व फर्जी संस्थाओं को बंद करने का अधिकार भी होगा। आयोग नए संस्थान खोलने-बंद करने के मानक भी तय करेगा। ड्राफ्ट ऐक्ट में आयोग के आदेशों की अवहेलना करने वाली संस्था के सीईओ और प्रबंधन को तीन साल की सजा का भी प्रावधान है।


एचईसीआई के ड्राफ्ट ऐक्ट पर शिक्षाविदों में सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या नई एजेंसी मोदी सरकार का नारा ‘न्यूनतम शासन-अधिकतम सुशासनश् पूरा कर पाएगी? त्रुटि करने वाली संस्थाओं को दंडित करने का अधिकार उच्च शिक्षा में एक नए तरह के ‘इंस्पेक्टर राजश् की वापसी नहीं होगी? अभी तक यूजीसी के पास अच्छी गुणवत्ता वाली यूनिवर्सिटी-कॉलेजों को ज्यादा वित्तीय अनुदान देकर प्रोत्साहित करने का अधिकार था। ड्राफ्ट ऐक्ट में यह अधिकार मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास चले जाने से क्या यूजीसी सिर्फ ‘ज्ञान दाताश् बनकर नहीं रह जाएगी? यूजीसी के 350 से अधिक कर्मचारियों और अधिकारियों की सेवाएं नई नियामक संस्था में उनकी मौजूदा सेवा शर्तों पर जारी रहेंगी? क्या नियामक संस्था का महज नाम बदल देने से उसकी कार्यशैली भी बदल जाएगी?


पिछले एक दशक से यूजीसी अनेक विवादों और आलोचनाओं के केंद्र में रही है। इसकी स्थापना 1956 में हुई और इसका मुख्य कार्य विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा के मानकों का निर्धारण और राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय करना था। भारत के संसदीय लोकतंत्र और यूजीसी जैसी नियामक संस्था की परिकल्पना हमारे जिन संविधान निर्माताओं द्वारा की गई, वे ग्रेट ब्रिटेन के वेस्टमिन्स्टर मॉडल और उसकी संस्थागत संरचना से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। यूजीसी की परिकल्पना ब्रिटिश यूजीसी के आधार पर की गई, जो 1919 में वित्त मंत्रालय के तहत थी और उसका मुख्य कार्य सार्वजनिक विश्वविद्यालयों व कॉलेजों को अनुदान देना था। 1998 में ब्रिटेन ने यूजीसी को खत्म कर दो नई नियामक संस्थाएं स्थापित कर दीं, जिनका नाम हायर एजुकेशन फंडिंग काउंसिल और क्वालिटी एश्योरेंस एजेंसी है।


वर्ष 1956 में यूजीसी की स्थापना के समय उसके अधीन बमुश्किल 20 विश्वविद्यालय, 500 कॉलेज, 15,000 प्राध्यापक और लगभग दो लाख विद्यार्थी थे। यूजीसी व उसका 62 वर्ष पुराना ढांचा 21वीं सदी के भारत की उच्च शिक्षा की जरूरतों का सामना नहीं कर पा रहा है। अभी 18 से 24 साल के बमुश्किल 25 प्रतिशत युवा ही हमारे विश्वविद्यालयों व कॉलेजों में दाखिला ले पाते हैं। अगर हम जीईआर को 50 प्रतिशत कर पाने की कल्पना करें, तो आने वाले दशकों में चार करोड़ से ज्यादा अतिरिक्त युवाओं की शिक्षा के इंतजाम करने होंगे। क्या प्रस्तावित एचईसीआई इस लक्ष्य को पूरा कर पाएगा? यूजीसी के साथ एक बड़ा विरोधाभास यह है कि इसका सांगठनिक ढांचा सरकारी यूनिवर्सिटियों व कॉलेजों को वित्तीय अनुदान देने के लिए बनाया गया था, किंतु वर्तमान परिस्थिति में इसके सामने बड़ी चुनौती यह है कि 895 यूनिवर्सिटियों और 42,338 कॉलेजों में तीन करोड़ भारतीय युवाओं को दी जा रही उच्च शिक्षा की गुणवत्ता व मानक कैसे सुनिश्चित करे?


रत की उच्च शिक्षा में सुधारों की चर्चा का एक प्रमुख बिंदु रहा है- नियामक एजेंसियों की बहुलता से पैदा होने वाली जटिलताएं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 व उसके क्रियान्वयन की रूपरेखा (1986 व 1992) में एक राष्ट्रीय उच्च शिक्षा काउंसिल बनाने का सुझाव दिया गया था। एक दशक तक यह सिफारिश ठंडे बस्ते में पड़ी रही। सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने 2007 में फिर से इस मुद्दे को उठाया और उच्च शिक्षा के लिए एक स्वयंशासी नियामक एजेंसी (आईआरएएचई) बनाने का सुझाव दिया। प्रोफेसर यशपाल कमेटी ने भी 2009 में अपनी रिपोर्ट में एक दर्जन नियामक संस्थाओं को विलीन करके उच्च शिक्षा व अनुसंधान के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाने की राय दी थी। यूजीसी की जगह एक प्रभावशाली नियामक संस्था बनाने की चर्चा 30 वर्षों से चली आ रही है।


 साल 2019 के आम चुनाव की पूर्व-वेला में यूजीसी के स्थान पर एचईसीआई के गठन का फैसला मौजूदा एनडीए सरकार के लिए राजनीतिक दृष्टि से लाभदायक है। लगता है, यह ड्राफ्ट ऐक्ट संसद के मानसून सत्र में पारित भी हो जाएगा। किंतु हमारी उच्च शिक्षा की समस्याएं बहुत गहरी हैं, जिनके समाधान के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति व दीर्घकालिक प्रयासों की जरूरत है। उच्च शिक्षा के अवसर निश्चित रूप से बढ़े हैं, लेकिन अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा 20-25 प्रतिशत विद्यार्थियों को ही मिल पाती है। भारत की उच्च शिक्षा की ज्यादातर समस्याएं वांछित वित्तीय साधनों की कमी और उच्च शिक्षण संस्थानों को समुचित स्वायत्तता न मिलने से पैदा हुई हैं। अभी भी उच्च शिक्षा पर होने वाला सरकारी व्यय सकल राष्ट्रीय उत्पाद के डेढ़ प्रतिशत से भी कम रहता है। एक और बड़ी समस्या कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के उच्च प्रबंधन में राजनीतिक दखल भी है। भारत की उच्च शिक्षा की हालत एक प्राचीन जीर्ण-शीर्ण मंदिर जैसी है, जिसका जीर्णोद्धार सिर्फ नए सिरे से निर्माण से ही हो सकता है, दीवारों पर रंग-रोगन और शिखर की तोरण-पताकाएं बदलने मात्र से कुछ नहीं हासिल होने वाला।


(ये लेखक के अपने विचार हैं)


हरिवंश चतुर्वेदी


निदेशक, बिमटेक


साभार हिन्दुस्तान

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