मनुष्य बनाने वाली शिक्षा का अभाव

शिक्षाविद् गिरीश्वर मिश्र का अपने लेख ‘पास और फेल तक सीमित शिक्षा’ के माध्यम से वर्तमान शिक्षा पद्धति के खोखलेपन पर चिंता व्यक्त करना जायज है। वस्तुतरू आज प्रवेश, परीक्षा और परिणाम के मकड़जाल में फंसी हुई शिक्षा अपनी उस स्वाभाविकता से दूर होती जा रही है जो शिक्षार्थी को मनुष्य बनाती है। वर्तमान शिक्षा में परीक्षा के प्राप्तांकों की प्रतिस्पर्धा उस पराकाष्ठा तक पहुंच गई है, जहां सीबीएसई बोर्ड का टॉपर 500 अंकों में से 499 अंक प्राप्त करके सबको चैंका रहा है। आखिर वह कौन सी मूल्यांकन पद्धति है? जिसमें हंिदूी, अंग्रेजी जैसे भाषिक और विज्ञान, मानविकी जैसे व्याख्यापरक विषयों में भी परीक्षकों को परीक्षार्थी की कोई चूक नजर नहीं आती और उसे 100 में से 100 अंक दे दिए जाते हैं। लेकिन जब यही परीक्षार्थी किसी प्रतियोगी परीक्षा में बैठता है तो उसके अंकों का प्रतिशत 50, 60 या अधिकतम 70 के बीच सिमट जाता है। परीक्षा के प्राप्तांकों की यह होड़ विद्यार्थियों में नैराश्य और हीनता के भाव को विकसित कर रही है, जो शिक्षा के सही मायने के विपरीत है। भारत में शिक्षा को ‘मनुष्य’ बनाने वाली प्रक्रिया माना गया है। लेकिन पता नहीं कब और कैसे इस देश की शिक्षा ‘परीक्षा प्राप्तांक’ और ‘पैकेज’ के मकड़जाल में उलझकर इतनी एकांगी हो गई कि उसने अपनी वास्तविकता को खो दिया। शिक्षा की इस विद्रूपता ने जिन सामाजिक विसंगतियों को जन्म दिया उनमें अपराध और भ्रष्टाचार प्रमुख हैं। आज भारतीय समाज में इन बुराइयों की जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि अब उन्हें उखाड़ पाना मुश्किल हो रहा है। पारिवारिक विघटन और संवेदनहीनता शिक्षा के इस खोखलेपन की दूसरी विसंगति है। व्यक्ति की आत्मकेंद्रित स्थिति ने उसे सामाजिक सरोकारों से दूर कर दिया है। ऐसे में संवेदनशील और सुसंस्कृत समाज की कल्पना बेमानी सी लगती है। अतरू आज उस स्वाभाविक शिक्षा की जरूरत है जो शिक्षार्थी को ‘मनुष्यता’ से परिपूर्ण कर सके।


पांडेय
साभार जागरण

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