समान शिक्षा की जरूरत

दुनिया के ज्यादातर विकसित देशों में विवि शिक्षा से पूर्व की शिक्षा समान और सरकारी है। निजी स्थान मिला है। प्रारंभ में अपने यहां भी यही नीति थी, मगर अब ज्यादातर प्रदेशों में सरकारी शिक्षा दम तोड़ चुकी है। छोटे-छोटे कस्बों में खुले निजी स्कूल, पब्लिक स्कूल कहे जा रहें हैं और सरकारी स्कूल महज मिडे-डे-मिल के लिए जाने जाते है। वहां उचित शिक्षा नहीं मिलती है। पब्लिक स्कूलों में खास ‘पब्लिक’ के बच्चे जाते हैं, आम के नहीं। अनकी भी कई श्रेणियां हैं। किसी निजी स्कूल की मासिक फीस कुछ सौ रुपये है, तो किसी की लाख रुपये तक है। कहीं पंखे के नीचे पढ़ाई हो रही है तो कहीं, वातानुकलित कमरों में प्रोजेक्टर के सहारे बाहरी दुनिया से ज्ञान-विज्ञान का अदान-प्रदान हो रहा है।


                इस प्रकार शिक्षा के सहारे समाज में असमानता और भेदभाव को सुदृढ़ किया जा रहा है। एक लोकतांत्रिक देश में, जिसका संविधान जनता के द्वारा, जनता के लिए कहा गया है, वहां शिक्षा के नीति निर्धारण में जनता तो कहीं दिखाई नहीं देती। जनता की मर्जी पूछी नहीं जाती। पांच सितारा होटलों की तरह खुले शिक्षण संस्थानों में जो पच्चीस प्रतिशत सीटें गरीब बच्चों को दी गई थीं, उस नीति का कितना पालन हुआ? इस पर बहस क्यों नहीं हुई  िकवह नीति भी तो दोहरी शिक्षा व्यवस्था पर मुहर ही लगा रही थी? एक बार इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक फैसले में कहा कि सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़े। बेहतर होता कि न्यायालय द्वारा शिक्षा व्यवस्था पर चोट की जाती।


क्या यह सही नहीं है कि दोहरी शिक्षा व्यवस्था उच्च और निम्न वर्ग की खाई को फैला रहा है? वह समाज को विभिन्न श्रेणियों में बांट रही है। आज भूटान जैसा छोटा देश महज दस वर्षो में शिक्षा के मामले में भारत से बहुत आगे निकल चुका है। हमारे यहां सरकारी स्कूलों की मजबूत बुनियाद, जो अंग्रेजों द्वारा यहां रखी गई थी, सत्तर के बाद उसे ध्वस्त करने का खेल चालू हुआ। जैसे-जैसे प्रभुत्वशाली लोगों ने निजी स्कूलों की बुनियाद रखनी शुरू की, शिक्षा की व्यवस्था बना लिया, वैसे-वैसे सरकारी स्कूलों से शिक्षा को समाप्त करने का खेल करने शुरू हो गया। अस्सी के दशक तक शासन-प्रशासन मे नब्बे प्रतिशत अधिकारी सरकारी स्कूलों में पढ़कर आये थे। आज उसकी तस्वीर पलट चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय के जज उन्नीकृष्ण ने 1993 में ही फैसला दे दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 45 के अंतर्गत 14 वर्ष तक के बच्चों की मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। ऐसे में 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने के नाम पर 86 वां संविधान संशोधन की क्या जरूरत थी? दरअसल 86वें संविधान संशोधित के अनुच्छेद 21(क) के अनुसार, 6-14 वर्ष के आयु के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा उस रीति से दी जाएगी, जो राज्य कानून निर्धारित करेगा। यानी कि अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का मौलिक अधिकार क्या हो, यह तय करने का अधिकार संविधान प्रदत्त न होकर वैसा होगा जैसा सरकार चाहेगी। जाहिर है, किसी भी अन्य मौलिक अधिकार के बारे में सरकार को ऐसी शक्तियां हासिल नहीं हैं। जरूरत है कि समान सरकारी शिक्षा की नीव रखी जाए। केवल यही एक निर्णय, देश की तमाम बुनियादी समस्याओं को दूर करने में उपयोगी होगा।


लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा


साभार अमर उजाला

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