विश्वविद्यालय या डिग्री बांटने के कारखाने शीर्षक से लिखे अपने लेख में कुलपति गिरीश्वर मिश्र ने केंद्र और राज्य की वर्चस्वता के बीच झुलने वाली उच्च शिक्षा की मजबूती के लिए जिस स्वायत्तता की बात की है वह एक प्रयोग तो हो सकताव है, लेकिन स्थाई समाधान नहीं। देश की शिक्षा के संदर्भ में यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति रही है कि अंग्रेजी शासनकाल से अब तक शिक्षा को राजनीति के चश्मे से ही देखा गया है। इस चलन से मात्र बनकर रह गई। शिक्षा की इस उद्देश्यहीनता ने डिग्रीधारी बेरोजगार युवाओं को नकारात्मकता की ओर ढकेलने का काम किया। इस दृष्टि से यदि समय रहते शिक्षा के इस खोखलेपन के प्रति ध्यान नहीं दिया गया तो बढती बेरोजगारी से डिग्रीधारी उपराधियों का आंकड़ा बढ़ने में देर नहीं लगेेगी। इसके लिए विधार्थी की क्षमता और रुचि को परखने के लिए विधालय स्तर पर परामर्श और गाइडे़स सेल बनाने, शिक्षक चयन में विषयगत दक्षता अतिरिक्त शिक्षण अभिरुचि को वरीयता देने और उच्च शिक्षा में टेक्निकल और मेडिकल की तरह अन्य कैडर में भी केंद्रीयकृत प्रवेश परीक्षा को लागू करने की दीशा मे काम करने की जरूरत है। लेकिन यह तभी संभव है जब शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार और कामचोरी को सशक्त निगरानी तंत्र के जरिये निर्मूल कर दिया जाय।
लेखक पांडेय वीपीवी जीमेेल आईडी से
साभार जागरण
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