शिक्षा एक ऐसी गतिशील प्रक्रिया है, जिसका निर्मल प्रवाह जीवनदायिनी धारा है। जिस समाज और सभ्यता में शिक्षा के इस महत्त्व को समझ लिया जाता है, उसकी प्रगति की राह के हर प्रकार के अवरोध दूर करने के ज्ञान और कौशल से युक्त व्यक्ति सदा आगे आ जाते हैं। आज शिक्षा की अवश्यकता किसी को भी समझानी नहीं पड़ती है। सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि संविधान के निर्देशानुसार चैदह वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों को अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा देने का प्रबंध कर दिया गया है। प्रमाणस्वरूप यह कहा जाता है कि आजादी के समय की साक्षरता दर अठारह प्रतिशत से बढ़ कर आज पचहत्तर प्रतिशत के ऊपर है, जबकि आबादी में तीन गुने से अधिक बढ़ोतरी हुई है। यह उपलब्धि ध्यान तो आकर्षित करती है, पर एक अन्य उपलब्धि इससे भी बड़ी है। आज हर परिवार अपने बच्चों- लड़के और लड़की दोनों- को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा, जिसमें नए और उपयोगी कौशलों का सीखना भी शामिल हो, दिलाना चाहता है।
आज से पचास-साठ साल पहले ऐसा नहीं था। निस्संदेह यह एक बड़ी कामयाबी है, मगर इसी के साथ देश के सामने एक बड़ी चुनौती भी उभरी है, जिसका समाधान केवल ईमानदार राष्ट्रीय सहमति के आधार पर ही संभव है। पचास और साठ के दशक तक सरकारी स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की साख का लोहा हर तरफ माना जाता था। नैतिकता को जीवन का आधार बना कर जीने वाले अध्यापकों और प्राध्यापकों की उपस्थिति हर तरफ थी। आज के युवा यह सुन कर हैरान रह जाते हैं कि उस दौरान यह सोचना असंभव था कि किसी विश्वविद्यालय का प्राध्यापक ट्यूशन या कोचिंग करेगा! उनके दरवाजे हर उस विद्यार्थी के लिए सदा खुले रहते थे, जिसे किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो। देश के हर जिले में ‘मिडिल स्कूल’ के किसी न किसी नामी-गिरामी हेडमास्टर का नाम लोग अत्यंत सम्मान के साथ लेते थे, जो नियमित पढ़ाने के बाद भी ‘दिन-रात’ एक करके वार्षिक परीक्षा की तैयारी कराते थे। ‘एवजी’ पढ़ाने वाले जैसे शब्द तब न संकल्पना में थे और व्यवहार में होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान स्कूलों के अध्यापकों ने ही गांधी की वाणी और विचार दूर-दराज के लोगों तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया था। कितनों ने ही यातनाएं सहीं, जेल गए, मगर आने वाली पीढ़ियों को राष्ट्र प्रेम और मानव मूल्यों का महत्त्व बता गए। अपेक्षा तो यह थी कि जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार होगा, देश विकास और प्रगति के साथ शांति और भाईचारे की ओर भी अग्रसर होगा। जो लोग पंक्ति में अंतिम छोर पर पहुंचा दिए गए थे, उन्हें मानवोचित सम्मान देकर सभी अन्य के साथ बराबरी पर लाया जाएगा और एक समतामूलक समाज बनेगा, जिसमें समरसता और भाईचारे की सुगंध हर तरफ बिखरी होगी। ऐसा न हो पाने के अनेक कारण हो सकते हैं, मगर दूरदृष्टि पूर्ण विश्लेषण सदा यही दर्शाता है कि केवल शिक्षा को सही स्वरूप देने वालों का उचित व्यक्तित्व विकसित कर ही समस्याओं का स्थायी समाधान निकाला जा सकता है। अब यक्ष प्रश्न है कि शिक्षा और उसकी संस्थाओं की साख फिर से कैसे स्थापित की जा सकती है?
अध्यापक जब कक्षा में प्रवेश करता है तो वहां वह क्या करता है, कैसे करता है या नहीं करता है, इसका निर्णय उसे खुद करना होता है। उस पर पाठ्यक्रम और परीक्षा जैसे बंधन तो होते हैं, मगर बच्चों से वह कैसे व्यवहार करता है, उनसे कितना आदर पाता है, यह उसकी अपनी योग्यता, कर्मठता और मानवीय मूल्यबोध से निर्धारित होता है, किसी के आदेशों से नहीं। अध्यापकों से की जाने वाली अपेक्षाओं में यह भी शामिल है कि वह खुद पाठ्यक्रम निर्माण कर सके और उसके निर्माण के मूल तत्त्वों से परिचित हो। शिक्षा की साख सुधार में अध्यापक अपना किरदार तभी निभा सकता है जब उसके प्राचार्य और अन्य अधिकारी यह जानें और मानें कि उसकी ‘स्वायत्तता’ उसे सम्मानपूर्वक प्रदान की जानी चाहिए। ‘स्वायत्तता’ शब्द का प्रचलन ज्यादातर तो विश्वविद्यालयों से जोड़ कर देखा जाता है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह वहां भी न अध्यापकों को उपलब्ध होती है और न कुलपति को। गुरुकुल और आश्रम पद्धतियों में यह स्पष्ट रूप से उभरता है कि समाज और राजतंत्र आवश्यक संसाधन तो उपलब्ध कराते थे, मगर क्या कभी किसी राजा ने ऋषि को यह आदेश दिया होगा कि अमुक विषय ही सिखाना है, या अमुक घंटे ही मेरा पुत्र सीखेगा और फिर आराम करेगा?
लगभग पूरी शिक्षा को कुछ मूलभूत तत्त्वों के इर्दगिर्द समेटा जा सकता हैरू ‘क्या पढ़ाएं, कैसे पढ़ाएं, कौन पढ़ाएं, कब पढ़ाएं’। इन पर निर्णय लेने का अधिकार किसे होना चाहिए? भारत जैसे विविधताओं वाले देश में जहां प्रजातंत्र की संघीय व्यवस्था संविधान में स्वीकृत है, नीतिगत स्तर पर समरूपता आवश्यक है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर सभी की सहमति से शिक्षा नीति निर्धारण भी स्वीकार्य होना चाहिए। कक्षा दस और बारह की बोर्ड परीक्षाओं के स्तर भी समान होने चाहिए, ताकि राष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं में किसी भी अभ्यार्थी के साथ अन्याय न हो। विश्वविद्यालय के स्तर पर पाठ्यक्रम निर्धारण की स्वतंत्रता केवल कागजों पर न होकर व्यवहार में भी परिलक्षित होनी चाहिए। राष्ट्रीय स्तर की नियामक संस्थाएं अकादमिक सहयोग और मनोबल बढ़ाने के लिए जानी जाएं तो अनेक समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाएगा।
विश्वविद्यालय को नया पाठ्यक्रम शुरू करने के लिए दिल्ली के चक्कर लगाने पड़े तो स्वायत्तता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। इसी प्रकार जब राज्य स्तर के संस्थान यह निर्धारित करते हैं कि सारे राज्य में अमुक पाठ अमुक तिथि तक पूरा हो जाना चाहिए, तब अध्यापक का मनोबल नीचे आ जाता है। इस प्रकार के अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैं।
प्रशासनिक स्तर पर अनेक प्रकार की गिरावट व्यवस्था में प्रवेश कर गई है, जिसका समूल उखाड़ फेंका जाना साख स्थापित करने की पहली शर्त है। सरकारी स्कूलों में मानदेय पर अल्पकालीन नियुक्तियां, जोड़-तोड़ के तबादले, राजनेताओं के दबाव, अधिकारियों द्वारा अध्यापकों का तिरस्कार और असम्मान आदि कुछ ऐसे प्रचलन हैं, जो सारे देश में कमोबेश देखे जाते हैं। कोई भी राष्ट्र अपनी भावी पीढ़ी के साथ खिलवाड़ करता है, जब वह बिना अध्यापकों के स्कूल चलता है। विश्वविद्यालयों में पचास-साठ प्रतिशत रिक्त अकादमिक पदों के रहते ऊंची श्रेणी के शोध की अपेक्षा करता है! भारत के समाज में आज भी लोग स्कूलों की मदद करने को आगे आने को उत्सुक हैं। यहां ऐसी परंपरा सदा से रही है। मगर सरकारी तंत्र की अरुचि और निजी तंत्र की शिक्षा से लाभांश कमाने की प्रवृत्ति ने समाज को शिक्षा से और उसके संस्थानों से दूर कर दिया है।
आज भी वही संस्थाएं नाम कमा रही हैं, जहां सही नेतृत्व मिल रहा है। अगर कुलपति, प्राचार्य, मुख्य अध्यापक के पद केवल उनकी, योग्यता, कर्मठता, मूल्यपरकता और नेतृत्व क्षमता के आधार पर भरे जाएं तो दो-चार वर्षों में देश में शिक्षा की सूरत बदल सकती है, बिना किसी हंगामे के। लेकिन इसके लिए चाहिए समाज का पूर्ण सहयोग, शासन तंत्र पर बदलाव के लिए दबाव और अध्यापकों पर पूर्ण विश्वास! यह सच है कि किसी भी देश के लोगों का स्तर उनके अपने अध्यापकों के स्तर से ऊंचा नहीं हो सकता है। यह समझ ही वह कुंजी है, जो शिक्षा में नया सवेरा ला सकती है।
जगमोहन सिंह राजपूत
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
साभार- दैनिक जागरण
Comments (0)