बच्चों का बोझ कम करें

दुर्भाग्यपूर्ण है कि तमाम चेतावनियों-चिंताओं के बावजूद बच्चों के कंधों पर लटके भारी-भरकम बस्ते के बोझ पर कोई ध्यान नहीं दे रहा। इस सच के बावजूद कि भावी पीढ़ी महज इसी कारण कई रोगों का शिकार होने को अभिशप्त है। यह सरकारी और निजी स्कूलों, दोनों का सच है। चिकित्सा विशेषज्ञों के लगातार ध्यान दिलाने के बावजूद इस संबंध में अभी तक हुआ कुछ नहीं। अब कराची के मेडिकल सुपरिटेंडेंट ने स्कूलों को चिट्ठी लिखकर इस खतरे से न सिर्फ आगाह किया है, बल्कि कुछ जरूरी कदम उठाने की हिदायत भी दी है। हालांकि खैबर पख्तूनख्वा सरकार ने इस मामले में पहल करके औरों को राह तो जरूर दिखाई है। उसने एक वर्किग ग्रुप बनाकर उसे इस पूरे मामले के अध्ययन के बाद कारगर सुझाव देने को कहा है। सच है कि अब जब हम डिजिटल युग में प्रवेश कर चुके हैं, हमें बच्चों की इस समस्या पर ‘आउट ऑफ बॉक्स’ या बने-बनाए र्ढे से बाहर आकर सोचने की जरूरत है। देखने में आया है कि तमाम बड़े अंग्रेजी स्कूल बच्चों को होमवर्क तो ई-मेल और एप के जरिए देते हैं, लेकिन उनके बच्चे भी भारी बस्ता ढोने से मुक्त नहीं हैं। अब अगर ऐसा है, तो फिर ई-मेल और एप के जरिए होमवर्क देने का क्या फायदा? शायद इसके लिए कुछ और आगे जाकर सोचने की जरूरत है। ऐसा टाइम टेबल बनाने की जरूरत है, जो सिर्फ उतनी ही किताब-कॉपियां लाने को कहे, जिसकी उस दिन जरूरत हो। एक विकल्प यह भी हो सकता है कि स्कूल बच्चों को लॉकर दें, जहां वे अपनी जरूरी किताबें रखकर अनावश्यक बोझ ढोने से बच सकें। सुविधाविहीन सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिए सरकार को ऐसी योजना बनानी चाहिए, जो उन पर बोझ डाले बिना विकल्प दे सके। कुछ निजी स्कूलों के ऑनलाइन संसाधनों को भी इससे जोड़ा जा सकता है। पढ़ाई ऐसी हो, जो बच्चों को उसमें डूबने के लिए प्रेरित करे, न कि उन पर बोझ बन जाए। जाहिर है, बस्ते के बोझ से कराह रहा बच्च कभी पढ़ाई में डूब तो नहीं ही पाएगा। यह एक ऐसा मामला है, जिसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।


लेखक - डॉन, पाकिस्तान


साभार - हिन्दुस्तान

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