भारतीय प्रशासनिक सेवा के सर्वोच्च स्तर के अधिकारियों के बच्चों की शिक्षा के लिए 1998 में एक अति- विशिष्ट स्कूल की स्थापना नई दिल्ली के चाणक्यपुरी इलाके में भारत सरकार की उदारतापूर्ण सहायता और सहयोग से की गई थी। इसमें साठ प्रतिशत स्थान प्रथम श्रेणी के अधिकारियों के बच्चों के लिए सुरक्षित थे। इस पर अनेक प्रकार की चर्चाएं समय-समय पर होती रही हैं। आरक्षण के प्रतिशत और सरकारी सहयोग का मामला उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय भी गया। भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के संदर्भ से खबर आई है कि दिल्ली के इस स्कूल की तर्ज पर हर राज्य की राजधानी में ऐसे स्कूलों की सख्त आवश्यकता है और कहीं-कहीं तो इसके लिए उचित स्थानों पर सरकारी जमीन भी चिन्हित कर ली गई है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय से यह पता चला है कि उसकी इस प्रस्ताव में कोई भागीदारी नहीं है। उसके समक्ष नई शिक्षा नीति का मसौदा प्रस्तुत हो चुका है और किसी भी समय वह उजागर किया जा सकता है।
जिस प्रकार हमारे सांसद अभी तक जब जी चाहा अपने वेतन-भत्ते बढ़ाते रहे हैं उसी प्रकार अब वरिष्ठ अधिकारी भी अपने लिए विशिष्ट व्यवस्थाएं बिना किस हिचक के कर रहे हैं। संस्कृति स्कूलों का बढना इसी का एक उदहारण होगा। प्रश्न यह उभरना चाहिए कि देश की प्राथमिकता क्या है? नौकरशाहों के लिए साधन-संसाधन जुटाना या देश के करोड़ों बच्चों के लिए चल रहे सरकारी स्कूलों में उनका उपयोग करना? यह भी पूछा जाना चाहिए कि इस प्रकार के निर्णयों का समाज और सामान्य जन पर कैसा प्रभाव पड़ेगा? क्या इससे आपसी अविश्वास और आक्रोश नहीं बढ़ेगा? क्या यह वंशवाद का नया स्वरुप तो नहीं पनप रहा है? इस पर अंकुश लगाना किसका कर्तव्य है? वे सभी लोग जो शिक्षा में रुचि लेते हैं और शिक्षा व्यवस्था को जानने-समझने का प्रयास करते हैं, यह जानते हैं कि केंद्रीय विद्यालयों की स्थापना अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के बच्चों को स्थानांतरण से होने वाली असुविधा के निवारण के लिए ही की गई थी। इन स्कूलों ने अपनी एक साख बनाई है जबकि अधिकांश संस्थाओं की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है। देश में अधिकांश लोग चाहते हैं कि देश के सारे स्कूलों को केंद्रीय विद्यालयो के स्तर पर लाया जाए ताकि देश की बौद्धिक संपदा में कई गुना की बढ़ोतरी हो सके। ऐसा होना एक सपने के साकार होने जैसा होगा और तभी संविधान की आत्मा में निहित यह उद्देश्य कि हर बच्चे को समान स्तर की शिक्षा मिले, फलीभूत हो पाएगा। ऐसा होने पर ही समानता के अवसर हर युवा को उपलब्ध हो सकेंगे। अधिकांश देशवासी इसे ही न्यायसंगत मानेंगे। वे ऐसी अपेक्षा करते हैं कि नीतियां इसी दिशा में आगे बढ़ें, लेकिन शायद इससे भी प्रबल पक्ष उन लोगों का है जो अपनी विशिष्टता बनाए रखना चाहते हैं और जिनका सबसे बड़ा प्रयास इसी एक दिशा में ही होता है कि उनकी यह विशिष्टता आगे आने वाली पीढियों को भी उपलब्ध रहे और इस पर कोई आंच न आने पाए। आज उन्हें केंद्रीय विद्यालय अपने लिए उपयुक्त नहीं लग रहें हैं। क्यों? क्योंकि वहां सरकारी कर्मचारियों के हर श्रेणी के बच्चे एक साथ साथ पढ़ते और खेलते हैं।
प्राचीन समय के राजे-महाराजे इसे पसंद नहीं करते थे और अपनी स्वघोषित श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए अलग विद्यालय बनाते थे। उन पर कोई नियंत्रण नहीं था। प्रजा उनके शासन करने के अधिकार को दैवीय मानती थी। उसे जो मिल जाता था उसी में संतुष्ट हो जाती थी। इस स्थिति को 1835 में परखा था थामस बैबिंगटन मैकाले ने। उसे भारत की परंपरागत शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त कर नई नीति लागू करनी थी।
आज भी शिक्षा पर लगभग हर चर्चा-परिचर्चा में मैकाले का किसी न किसी रूप में यह उद्धरण दिया जाता है-श्हमें इस देश में एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जिसका रूप और रंग भारतीय होगा मगर जो रुचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज होगा।श् मैकाले ने और भी बहुत कुछ ऐसा किया जो ब्रिटिश राजशाही की हुकूमत को भारत पर अपना अंकुश बनाए रखने में सहायक बना। अगर उसे छोड़ भी दें तो इतना काफी है कि मैकाले अपनी कल्पना के भारतीयों का एक अलग वर्ग बनाने में सफल रहा। आज न मैकाले के साथी हैं और न ही अंग्रेज शासक, लेकिन शायद भारत में वह वर्ग फल-फूल रहा है, सशक्त है, सत्ता में है और उसकी इच्छाओं को आगे बढ़ा रहा है। इसका ही परिणाम है कि बिना किसी हिचक के अपने और अपनों के लिए जितनी व्यवस्था हो सके, करते रहो और जिनकी सेवा के लिए नियुक्त हो उन्हें बरगलाते रहो और किसी प्रकार की कोई चिंता मत करो। क्या संस्कृति स्कूल ही भारत के विकास के मानक होंगे या झाबुआ और कोरापुट के सरकारी स्कूलों में सुधार की प्रतीक्षा पूरी होगी? जिन आइएएस अधिकारियों ने संस्कृति जैसे स्कूलों के लिए सरकारी साधनों को लेना उचित माना उन्हें भारत के संविधान और महात्मा गांधी और अंबेडकर के विचार फिर से पढने चाहिए। इनमें से अनेक राज्यों में शिक्षा सचिव, स्कूल बोर्ड के अध्यक्ष, पाठय पुस्तक निगम के अध्यक्ष और शिक्षा सुधार से जुड़े अनेक विभागों में ऊंचे पदों पर रह चुके होंगे या आज भी होंगे। इन्हें यह क्यों नहीं सूझता कि पहले उन स्कूलों की सुध ली जाए जिनमें ब्लैकबोर्ड और शौचालय नहीं? आखिर साहब लोगों के बच्चो के लिए नए चमकते हुए स्कूल सरकारी सहायता से क्यों निर्मित होने चाहिए? इस प्रकार के श्नवाचारोंश् के सामजिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़ते हैं। इससे क्या वे अधिकारी अपरिचित होंगे जिन पर समाज के हर वर्ग को समानता के आधार पर देखने की जिम्मेदारी है? आखिर वे प्राथमिकता जन कल्याण को देंगे या स्व-कल्याण को? सियाचिन की हाड़ कंपाने वाली ठंड में गश्त लगाते उस सैनिक पर क्या प्रभाव पड़ेगा जो छुट्टी में आने पर पाएगा कि उसके बच्चे के स्कूल में अभी तक अध्यापक नहीं हैं, लेकिन साहबों के बच्चों के लिए नया भव्य स्कूल बन गया है? अपेक्षा तो यह है कि देश में नौकरशाही यह प्रयास करे कि नवोदय विद्यालयों की संख्या हर वर्ष बढ़े। वह यह प्रयास क्यों नहीं करती कि राज्य सरकारें अध्यापकों की नियुक्ति में धांधली न करें? क्या यह वर्ग नहीं जानता कि केंद्रीय विद्यालाओं की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगाकर समाज में बढ़ते विघटन को और बढ़ाया जा रहा है? इस प्रस्ताव का जितनी शीघ्रता से पटाक्षेप हो उतना अच्छा होगा। अगर बड़े अधिकारियों को कोई असुविधा है तो सरकार हर राज्य की राजधानी में एक-एक और केंद्रीय विद्यालय खोल सकती है। बड़े सोच के लिए व्यक्ति को व्यक्तित्व में परिवर्तित होना होता है, जो शायद मसूरी की अकादमी नहीं कर पाती है।
जगमोहन सिंह राजपूत
लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
साभार- दैनिक जागरण
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