यदि देश के प्रधानमंत्री को यह कहना पड़े कि अब मुझे कुछ कहने में डर लगता है, जैसा कि एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, तो आम लोगों की मानसिक हालत क्या होगी, सोचा जा सकता है। यह कहते हुए शायद हमारे प्रधानमंत्री के जेहन में उनके उस वक्तव्य पर उठे अनावश्यक, अरुचिकर और गलत विवाद की घटना ताजी हो गई होगी, जब उन्होंने कुत्ते के पिल्ले के कार के नीचे दबकर होने वाली मौत से उपजने वाली पीड़ा की बात कही थी। यह लोकसभा के चुनाव का दौर था। उसके बाद से मानो कि शब्दों, वाक्यों, कहावतों, अलंकारों, हास्य, व्यंग्य एवं वक्रोक्तियों के विरुद्ध विद्रोह का एक सैलाब ही आ गया है। आपको कार्टून संभलकर बनाना होगा। कुछ कहना है तो सीधे-सीधे सपाट बयानबाजी कीजिए। यदि जरा भी अलंकारों, तुलना या कहावत-मुहावरों का प्रयोग किया, तो इसके इंतजार में बैठा इलेक्ट्रानिक मीडिया और संगठन आपको लपककर मिक्सी में डाल देंगे। ‘उड़ता पंजाब ‘ फिल्म पर लगाया जाने वाला प्रतिबंध न केवल इसका चरम रूप ही था, बल्कि भाषाई समझ और कलात्मक-अभिव्यक्ति के प्रति दिवालियेपन का एक जीवंत प्रमाण था। लिखने में सावधानी बरतिए। पता नहीं कौन इस ताक में बैठा हो कि ‘कोई कुछ ऐसा लिखे कि मेरी भावनाओं को ठेस पहुंच सके। ‘ सावधान। भूल जाइए ‘कहां राजा भोज और कहां गंगू तेले ‘ जैसे मुहावरों को। हो सकता है कि इससे आहत होकर तेली समुदाय आपके खिलाफ तथाकथित कोई फतवा जारी कर दे। पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय में एक बड़ी मजेदार जनहित याचिका दायर की गई थी। याचिका में कहा गया था कि संता राम बंता राम टाइप के चुटकुलों से सिख समुदाय के लोगों की छवि खराब होती है और उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचती है। भगवान भला करे सुप्रीम कोर्ट का कि उसने इसे सिखों की जिंदादिली का प्रमाण मानकर खारिज कर दिया। नहीं तो अब तक हिंदुस्तान के सारे चुटकुले दम तोड़ चुके होते। पत्नियों के बहुत से संगठन और देश तथा राज्य के महिला आयोग उन चुटकुलों के खिलाफ लड़ाई छेड़ देते जिनसे पत्नियों की इमेज खराब होती है। क्या सच में ऐसा होता है? क्या किसी की भी या किसी समुदाय की इमेज इतनी भुरभुरी होती है कि उंगली रखते ही वह झडने लगती है और दावा ऐसा किया जाता है मानो कि वह मेवाड़ के किले की दीवार हो। दरअसल, यहां हमें थोड़ा रुककर इत्मिनान के साथ इस मुद्दे पर विचार करना चाहिए, क्योंकि आज छोटे से दिखाई देने वाले इस मुद्दे में भविष्य की विकरालता छिपी हुई है। यह विकरालता भाषाओं के नष्ट होने की है, कहावतों और मुहावरों की अकाल मृत्यु की है, बोलियों की गर्दन मरोडने की है, कहने, बोलने और लिखने के खूबसूरत और तरह-तरह के तरीकों को कुचल देने की है। तथा और भी न जाने क्या-क्या की। कुल मिलाकर यह कि यह विकरालता जीवन से जीवन के सौंदर्य के खारिज होने की है और भावनओं के नष्ट हो जाने की भी है। यानी कि इसकी मंजिल है एक ऐसे समाज तक पहुंचना जो शुष्क हो और अबोला हो। हर समस्या का राजनीतिक कारण ढूंढने वालों को कम से कम इस समस्या की जड़ें वहां ढूंढने के बजाय कहीं और ढूंढने की ओर बढना चाहिए। मुझे पहली वह जगह इलेक्ट्रोनिक मीडिया में दिखाई देती हैं, खासकर इसके चैबीस घंटे वाले न्यूज में। इसको अपना पेट भरने के लिए हमेशा कुछ न कुछ चाहिए। और जीवित रहने के लिए चाहिए इसे चटपटा, तीखा, गरम-गरम फास्ट फूड। यहां भोजन बनाने और परोसने वालों की सबसे बड़ी योग्यता यह मानी जाती है कि वे ठंडे से ठंडे तथा सादे से सादे तथाकथित डिश को कैसे और कितना गर्म और चटपटा बना सकते हैं। जहां तक इन लोगों की भाषाई दक्षता का सवाल है, मैं बहुसंख्यकों की बात कर रहा हूं, इनके पास न हिंदी है, न ही अंग्रेजी। लोकभाषाा के शब्दों, कहावतों, वाक्यों और साहित्य के बोध के होने का तो सवाल ही नहीं उठता। तभी तो ‘उड़ता पंजाब ‘ कुछ लोगों को ‘गालियों वाली फिल्म ‘ लगती है। मुश्किल यह कि ये साहित्य के ज्ञान से ही शून्य नहीं हैं, बल्कि साहित्य के संस्कारों से भी शून्य हैं। हां, मीडिया के कोर्स के टॉपर ये जरूर रहे होंगे। ऐसे लोगों के हाथों में बेचारी भाषा को मुश्किल में तो पडना ही है। वह पड़ी हुई है। जैसे ही हमारे ये तथाकथित ‘खोजी इंटेलेक्चुअलों ‘ को अपने अनुकूल ट्वीट जैसा कुछ मिलता है, बिना उसके संदर्भ के उसे ‘ब्रेक ‘ करके अपनी पीठ थपथपा लेते हैं। इस सेना के चक्रव्यूह में ठीक इस पंक्ति के पीछे खड़ी रहती है-विभिन्न संगठनों की सेनाएं। उन्हें अपनी ‘डाइट ‘चाहिए। मुश्किल यह है कि उसे जल्दी से जल्दी लपककर रिलीज कर देने की होड़ में न तो वे इसकी जांच करते हैं और न ही इसे समझते हैं। ये तो मानकर चलते है कि न्यूज का आदर्श वाक्य है, ‘सत्यमेव कहते। ‘ इस प्रकार देखते ही देखते एक जहरीला नशा समाज की चेतना में पहुंचा दिया जाता है। लेकिन सचमुच में धन्यवाद की पात्र है इस देश की आम जनता, जो अब इस ट्रिक को काफी समझने लगी है। पहले जब कभी ऐसा होता था, तो जवाब देने के लिए वह खुद आगे आती थी। अब वह नहीं आती। जो लोग आते हैं, यह उन पर मंद-मंद मुस्कराती रहती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अभी उसके पास साहित्य के, भाषा के, भावों के, लोकजीवन के और कुल मिलाकर यह कि जीवन की उदारता के संस्कार मौजूद हैं। इसलिए भले ही उसके संगठन को ठेस पहुंचती हो, लेकिन जब आप उससे व्यक्तिगत तौर पर पूछेंगे कि ‘क्या तुम्हें ठेस पहुंची है, तो उसका उत्तर होता है, ‘इसमें ठेस पहुंचने वाली बात ही क्या है। ‘ देश की जनता जिंदाबाद। लेखक डॉ. विजय अग्रवाल, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं , साभार- दैनिक जागरण
Comments (0)