उत्तरकाशी के पहाड़ी शहर में इतवार की एक शाम जब तेज बारिश हो रही थी और ज्यादातर लोग अपने आरामदायक व गरम घरों में बैठे थे, उसी समय सौ से ज्यादा शिक्षक-शिक्षिकाएं कुमाऊं के विज्ञान दार्शनिक देवेंद्र मेवाड़ी का व्याख्यान सुनने को कई किलोमीटर का फासला तय कर रहे थे। एक दिन पहले शाम भी उसी जिले के एक छोटे कस्बे चिन्यालीसौण में उनका व्याख्यान सुनने 130 से भी ज्यादा लोग पहुंचे थे।
अकादमिक बैठकों में शिक्षक-शिक्षिकाओं की इस उत्साहजनक भागीदारी का असल महत्व समझने में शायद इसकी संक्षिप्त पृष्ठभूमि कुछ मदद करे। हर उस जिले में, जहां यह पहल हुई है, पिछले कुछ वर्षो में ऐसे स्वैच्छिक शिक्षक मंचों ने जड़ें जमाई हैं, जहां शिक्षक-शिक्षिकाएं छुट्टी के दिन अथवा स्कूल के घंटों के बाद, समय-समय पर अकादमिक व शिक्षा पद्धतियों के मसलों पर चर्चा के लिए इकट्ठे होते हैं।
इन स्वैच्छिक मंचों में आमतौर पर लगभग 20-22 शिक्षक-शिक्षिकाएं आते हैं। वे अपना निजी वक्त ही नहीं देते, आने-जाने का खर्च भी खुद उठाते हैं। यह उस बात की पुष्टि भी करता है कि आत्म-विकास की कोई पहल स्वैच्छिक भागीदारी से ही सफल होती है, न कि सरकारी आदेश से। ‘स्वैच्छिक शिक्षक मंच’ इसी सिद्धांत का प्रतिफल हैं। इन स्वैच्छिक मंचों में भागीदारी लगातार बढ़ रही है, जिसकी प्रमुख वजह शिक्षक-शिक्षिकाओं के वाट्सएप समूह हैं। गणित रिसोर्स समूह ऐसा प्रयास था, जो तीन साल पहले शुरू हुआ। इस समय 150 से भी ज्यादा शिक्षक-शिक्षिकाएं इसके सदस्य हैं। उत्तरकाशी जिले के विज्ञान शिक्षकों ने दो साल पहले जो ‘इनोवेटिव साइंस ग्रुप’ बनाया था, अब उसमें 100 से भी ज्यादा सदस्य हैं। ऐसे ही कई और समूह बने हैं।
ये वाट्सएप समूह प्रशिक्षण कार्यशालाओं और कार्यक्रमों के असर को लंबे समय तक बरकरार रखने में भी मदद करते हैं, क्योंकि शिक्षक-शिक्षिकाएं इन कार्यक्रमों के विभिन्न मुद्दों व उनके व्यावहारिक प्रयोग के बारे में वाट्सएप पर बातचीत जारी रखते हैं। इनके टिकाऊ होने की बड़ी वजह यह है कि इनमें विविध अकादमिक व शिक्षा पद्धति संबंधी मसलों पर बातचीत होती है। मिसाल के लिए, जब कोई शिक्षिका आंकड़ों, आवृत्ति या ग्राफ विषय के शिक्षण के बेहतर तरीके पर चर्चा शुरू करती है, तो 100 किलोमीटर दूर के किसी ब्लॉक की दूसरी शिक्षिका उस पर अपने अनुभव साझा करती है।
ये शिक्षक इस्तेमाल की जाने वाली शिक्षण सामग्री की तस्वीरें भी शेयर करते हैं। इस सामूहिक प्रयास से एक ही समस्या के कई समाधान सामने आते हैं। अनुभवी शिक्षक शांति प्रसाद बताते हैं कि किस तरह इंटरनेट व वाट्सएप समूह उनके जैसे शिक्षकों के लिए मददगार बन गए- ‘प्रोजेक्ट इंग्लिश नाम का वाट्सएप समूह एक ऐसा मंच बन गया, जहां हम सवाल उठाते हैं, समाधान खोजते हैं और सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। हममें से किसी को भी अंग्रेजी में बातचीत का मौका नहीं मिला, ऐसे में आप कल्पना कर सकते हैं कि यह मंच हमारे लिए कितना उपयोगी है।’ इन समूहों की दिशा उत्साहवर्धक है। वे अपने अकादमिक उद्देश्य पर ध्यान दे रहे हैं। अपने विषय पर पकड़ रखने वाले प्रमुख रिसोर्स पर्सन इन समूहों की चर्चाओं में शामिल तो होते हैं, पर हावी नहीं होते। उनका काम चर्चा में शामिल रहते हुए समूह में उठने वाली समस्याओं का सिर्फ सहज समाधान देना है, और यही इसकी सफलता का कारण भी है। यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि सामूहिक चर्चाओं से दूर रहने वाले शिक्षक-शिक्षिकाएं भी कब इससे जुड़ जाते हैं, पता नहीं चलता। ये सीख रहे हैं और समझदारी विकसित कर रहे हैं। 30 वर्षो से भी ज्यादा समय से शिक्षण का अनुभव रखने वाले एक वरिष्ठ शिक्षक कहते हैं- इन समूहों से सहभागिता की भावना का विकास हुआ है। ऐसा लगता है कि ये वाट्सएप समूह शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिए एक-दूसरे से पेशेवराना ढंग से जुड़ने, सीखने व लगातार विकसित होने का रास्ता बना रहे हैं। साथ ही, यह ऐसी खिड़की है, जिससे ये बाहरी दुनिया से जुड़ते हैं और अपना काम साझा करते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
एस गिरिधर
सीओओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
साभार हिन्दुस्तान
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