बस्ते के बढ़ते बोझ की चिंता

मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम को आधा करा देने की घोषणा करके स्कूल जाने वाले बच्चों के जीवन में एक बड़ी सुखद संभावना और हलचल पैदा कर दी है। इस खबर से परिचित हुए अधिकांश बच्चों के चेहरे पर चमक सी दिखाई देती है। वे यह पूछते है कि क्या यह सच में हो जाएगा ? कब तक होगा? कैसे होगा? शिक्षा जगत में भी यह इस समय का सबसे अधिक चर्चित विषय बन गया है। अधिकांश लोग यह मानते है कि पहले के अनुभवों के कारण उनकी आशाओं पर आशंकाएं हावी हो जा रही है। कारण स्पष्ट है कि सरकारी स्कूलों में लगभग उस हर पक्ष में बड़ी कमियां मौजूद हैं जो स्वीकार्य स्तर की शिक्षा पाने और देने के लिए आवश्यक है। निजी स्कूल बस्ते का अधिक से अधिक बोझ लादने में आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं। इनमें से अधिकांश सीबीएसई के साथ संबद्ध होने के कारण एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें लागू तो करते हैं, मगर लगभग हर विषय में निजी प्रकाशकों की कम से कम दो-तीन पुस्तकें और भी खरीदते है। चूंकि अधिकांश माता-पिता आर्थिक रूप से संपन्न ही होते है। इसलिए वे बच्चों का भविष्य बनाने के लिए इस बोझ को संहर्ष स्वीकार कर लेते है। उन्हें अधिक से अधिक अंक चाहिए, लेकिन बच्चे पर क्या बीतती है इससे वे चिंतित नही होते है। यही नहीं इस वर्ग के बच्चों को अधिक ट्यूशन और कोचिंग के लिए भी जाना पड़ता है। कुछ उत्साही माता-पिता इसी से संतुष्ट नहीं होते हे। वे उन्हें डांस, टेबल-टेनिस, स्विमिंग इत्यादि की कोचिंग में भी भेजते है। जाहिर है कि बस्ते के लगातार बढ़ते बोझ के लिए एनसीईआरटी को केवल आंशिक रूप से ही जिम्मेदार माना जा सकता है। निजीकरण, जो एक तरह का व्यापारीकरण ही है, के बढ़ने के साथ बच्चों पर बोझ बढ़ा है। दूसरी तरफ सरकारी स्कूल हैं जो राज्यों के बोर्ड से संबंद्ध है। इन स्कूलों में किताबों और स्वेटर भी समयसे नहीं मिल पाते है। उध्यापक या तो अतिथि अध्यापक श्रेणी के या कम मानदेय वाले ही सारा उत्तरदायित्व निभाते है। वे अपने अस्थायित्व से चिंतित और उद्विग्न बने रहने को मजबूर है। ऐसे में लगनशीलता और कर्मठता की अपेक्षा का कोई अधिक अर्थ नहीं रहता है। इन स्कूलों में यह प्रश्न सदा ही उभरता है कि इन बच्चों को कौन पढ़ाए, कौन उन्हें प्रोत्साहन दे और समस्या समाधान में सहायक बने? यहां बच्चे है, मगर परिणाम असहनीय ही होता है। व्यवस्था में से कोई भी कमियों के लिए उत्तरदायी नहीं होता है। केवल बच्चा ही फेल घोषित कर दिया जाता है और वइ इस अपमान बोध को जीवन भर ढोता रहता है।


 


बस्ते के बोझ से संबंधित चिंता और चर्चा नई नहीं है। लगभग तीस वर्ष पहले बस्ते के बोझ पर एक देशव्यापी बहस हमारे अत्यंत सम्माननीय साहित्यकार आरके नारायण के राज्यसभा में दिए गए उनके पहले भाषाण के बाद प्रारंभ हुई थी। उन्होंने अत्यंत मार्मिक शब्दों में इस चिंताजनक स्थिति का वर्णन किया था जिसे सारा देश ने जाना और उनके प्रयास को सराहा। आरके नारायण ने बताया था कि किस प्रकार बच्चे बस्ते के भारी बोझ के कारण आगे को झुककर चलने को मजबूर होते है और इसका उनके स्वास्थय पर कितना घातक प्रभाव पड़ता है।उन्होंने बच्चों की पीठ पर प्रतिदिन लादे जाने वाले बोझ के लिए अंग्रेजी का शब्द ‘पैक-म्यूल’ का प्रयोग किया था। आशय था कि हम बच्चों के साथ वही सलूक कर रहे है जो खच्चरों के साथ किया जाता है। उनका कहना था कि हम प्रातः बच्चों के ऊपर भारी बस्ते का बोझ लादकर और स्कूल के लिए विदाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते है। उन्होंने सदन से अनुरोध किया था कि वह इस पर विचार करे और शिक्षा व्यवस्था को इस प्रकार बदले किं बचपन को प्रस्फुटित होने और मार्च 1992 को प्रसिद्ध वैज्ञानिक और शिक्षाविद प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। इस  समिति को बच्चों पर विशेषकर छोटे बच्चों पर बस्ते का बोझ को कम करने के उपाय सुझाने थे और साथ ही साथ सीखने की गुणवत्ता में सुधार और जीवन पर्यंत सीखने के कौशल विकसित करने की भी दिशा देनी थी। इन्हें प्रवेश की अर्हताएं पाठ्यक्रम पूरा होने पर उसके एक-दूसरे से जुडे पक्षों को भी देखना था। समिति ने गहन विचार-विमर्श और विद्वानों से राय-मशविरा करके अनेक ऐसे महत्वपूर्ण पक्षों का निर्धारण किया जिनसे सुधार आवश्यक थे। इसमें सूचना ओर ज्ञान के अंतर की समझ पैदा करना अत्यंत जरूरी पाया गया। पाठ्यक्रम बनाने और पाठ्यक्रम पुस्तकों के लेखन में ऐसे लोगों की भरमार होना सहीं नहीं माना गया जो स्कूली  शिक्षा से व्यवहारिक रूप से जुडे नहीं होते है। पाठ्यक्रम की केंद्रिकता, उसमें स्थानीय तत्वों की उपस्थिति का अभाव होना और इस कारण उसका अरुचिकर हो जाना भी सामने आया। यह भी पाया गया कि कोठारी आयोग(1964-66) के बाद से अनेकानेक स्तरों पर बार-बार परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिए की गई संस्तुतियों का लागू न हो पाना और रटने से बच्चों को निजात दे पान भी अनावश्यक बोझ बन रहा है। इस समिति ने समझ के बोझ की भी बात उठाई थी और अध्यापकों के लिए भी संस्तुतियां की थी। इन सभी पर पुनर्विचार आवश्यक होगा।


 


यशपाल समिति ने कक्षा छह से दस तक इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र और नागरिक शास्त्र को चार विषयों के रूप् में न पढ़ाकर एक समेकित विषय सामाजिक विज्ञान के रूप् में पढ़ाने की संस्तुति की थी। समिति की इस सिफारिश पर एक महत्वपूर्ण प्रयास एनसीईआरटी ने सन2000 में स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम की नई रुपरेखा के आधार पर  किया। इन चार विषयों में चार पाठ्यपुस्तकों के स्थान पर एक समेकित पाठ्यपुस्तक बनाई गई यानी लगभग 800 पृष्ठों के स्थान पर केवल करीब 200 पृष्ठ मगर यह प्रयास मई 2004 में केंद्र मे सरकार बदलने के बाद निरस्त कर दिया गया। इसकी संभावना पर फिर से विचार किया जा सकता है। बस्ते के बोझ की समस्या नई नहीं हैं। इसका समाधान ढूंढने के लिए जिस स्तर के साहस की  आवश्यकता थी वह सरकार और मंत्री के स्तर पर पहली बार सामने आया है। जो समाधान सुझाया गया है उसे व्यवहारिक रूप में स्कूलों और कक्षाओं तक पहुंचाने के लिए सघन बहुपक्षीय प्रयासों को निर्धारित कर कर्मठता और लगनशीलता से लागू करना होगा।


 


मानव संसाधन विकास मंत्रालय और उसके मंत्री ने स्वेच्छा से एक अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या के समाधान को चुनौती अपने सामने रख ली है उन्हें प्रत्येक राज्य सरकार का सघन और सक्रिय सहयोग अपेक्षित होगा। सबसे पहले सरकारी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों को आदर्श संस्थान बनाना प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारंभ करना सराहनीय कदम है। निजी संस्थानों को रास्ते पर लाना भी आवश्यक होगा। सुप्रशिक्षित अध्यापक प्रशिक्षक और अध्यापक ही बच्चों के लिए उचित पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तके तथा अन्य गतिविधियों की रूपरेखा तैयार कर सकते है। विशेषज्ञ केवल उनकी सहायता कर सकते है। देश को शिक्षा सुधार में इन पर विश्वास करना ही होगा।


(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक है)


लेखक     जगमोहन सिंह राजपूत


साभार   जागरण


 


 

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