छात्रों-शिक्षकों की शर्मनाक जुगलबंदी

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इधर एक अर्से से इस कारण से खबरों में बना हुआ है, क्योंकि यहां के छात्र 75 फीसद उपस्थिति अनिवार्य करने के फैसले का विरोध कर रहे हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन के इस फैसले के खिलाफ धरने, प्रदर्शन जारी हैं। इस पर हैरत नहीं कि छात्रों के विरोध को कुछ शिक्षक भी हवा दे रहे हैं। जब ये धरने-प्रदर्शन विश्वविद्यालय प्रशासन के लिए सिरदर्द बन गए तो उसने अदालत की शरण ली। दिल्ली उच्च न्यायालय ने छात्रों को नौ मार्च तक विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन के पास धरना-प्रदर्शन न करने के आदेश दिए हैं। इसके साथ ही यह भी कहा है कि विश्वविद्यालय प्रशासन जरूरत पड़ने पर पुलिस बुला सकता है। 75 फीसद उपस्थिति को जिस तरह तूल दिया जा रहा है उससे गैर जरूरी मुद्दों को खड़ाकर माहौल खराब करने वाली गंदी राजनीति के उभार का ही पता चलता है।


इसी राजनीति के कारण हमारे विश्वविद्यालय राजनीति का अखाड़ा बनते जा रहे हैं। विश्वविद्यालय एक अलग किस्म की आजादी के घोंसले होने चाहिए जहां नई पीढ़ी की रचनात्मकता रूपाकार हो सके, लेकिन देश की सर्वश्रेष्ठ आधारभूत सुविधाओं-भवन, छात्रवास, पुस्तकालय के साथ शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात के बावजूद क्या जेएनयू विश्व की चुनिंदा शैक्षिक संस्थाओं के आसपास भी कहीं पहुंचता है? आखिर किस गुमान में जेएनयू में आए दिन बवंडर मचा रहता हैं? क्यों दुनिया की पांच सौ शैक्षिक संस्थाओं में भी जेएनयू का नाम नहीं है? विज्ञान की तो छोड़ो, क्या पिछले बीस-तीस सालों में सामाजिक विज्ञान में भी शोध का स्तर नीचे नहीं गिरा है? कहीं तो कुछ गड़बड़ फैलती जा रही है इस नामी विश्वविद्यालय में। 75 फीसद उपस्थिति अनिवार्य करने के पीछे एक कारण यह है कि क्लासरूम खाली रहते थे और पर्याप्त छात्र कक्षा में नजर नहीं आते थे। शिक्षा में तनिक भी रुचि रखने वालों को पता है कि यह केवल जेएनयू में ही नहीं, पूरे देश के स्तर पर हो रहा है। राज्यों के विश्वविद्यालयों में अच्छे शिक्षक इस हालत से दुखी हैं, क्योंकि वे पढ़ाना चाहते हैं। वे विद्यार्थियों को क्लास में न पाकर निराश लौटते हैं। कक्षा में पर्याप्त विद्यार्थियों की उपस्थिति पूरे माहौल को अकादमिक ऊंचाइयों पर ले जाती है। ऐसा न हो तो धीरे-धीरे क्षरण हर तरफ फैलता है और अंततरू पूरे विश्वविद्यालय को अपनी चपेट में ले लेता है। क्या 75 प्रतिशत उपस्थिति इतनी बड़ी बाधा है कि उसके खिलाफ प्रशासनिक भवन की घेराबंदी की जाए और ऐसा अराजक माहौल पैदा कर दिया जाए कि अदालत को हस्तक्षेप करना पड़े? यह ध्यान रहे कि जेएनयू आवासीय विश्वविद्यालय है।


देश की राजधानी में खूबसूरत पहाड़ियों के मनोरम दृश्यों के बीच बने छात्रवासों में विद्यार्थी रहते हैं। चंद कदमों पर ही उनके क्लास रूम हैं। सवाल है कि दूर-दराज से अभिभावक उन्हें यहां पढ़ने भेजते हैं या करोड़ों के अनुदान वाले छात्रवासों में रहकर मटरगश्ती करने के लिए? एमफिल, पीएचडी के शोध छात्रों के लिए उपस्थिति में कुछ और ढील दी जा सकती है, लेकिन अन्य छात्रों पर इसे लागू करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि जेएनयू के छात्रों को कलास में जाना इतना ही नागवार गुजर रहा है तो वे मुक्त विश्वविद्यालयों से शिक्षा क्यों नहीं हासिल करते? वे पत्रचार से शिक्षा हासिल करें और इस दौरान जितनी आजादी चाहें, हासिल करें। बेहतर हो कि वे जेएनयू के छात्रवासों को दूसरे जरूरतमंदों और गंभीर छात्रों की खातिर छोड़ दें।


आखिर देश के करदाताओं का करोड़ों रुपया खर्च होता है। छात्रों के कक्षाओं में न जाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि पढ़ाई का स्तर नीचे गिरा है, लेकिन यदि जेएनयू जैसे संस्थानों में भी ऐसा हो रहा है तो यह और भी दुखद है। एक वक्त इस विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम भविष्योन्मुखी सोच, चेतना से बने और विकसित किए गए। इस गरीब देश के किसी विश्वविद्यालय को शायद ही जेएनयू जितनी छात्रवृत्तियां मिली हों। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी भी इसलिए आंखें मूंदे रहा कि शिक्षा के लिए सब माफ होना चाहिए, लेकिन राजनीतिक अखाड़ेबाजी में धीरे-धीरे ऐसा पतन हुआ कि न शोध में चमक बची, न दूसरे अन्य क्षेत्रों में। उपस्थिति आदि के नाम पर दुनिया भर के उदाहरण गिनाए जा रहे हैं, लेकिन यहां के नकली शोधपत्र, शैक्षिक पतन, भाई-भतीजावाद और राजनीतिक दुराग्रहों की चर्चा भूले से भी नहीं की जाती। जेएनयू के कई विभागों में कभी दिग्गजों का जमावड़ा होता था, लेकिन आज वहां के प्रोफेसरों को संबंधित विभाग की दीवारों के पार भी कोई नहीं जानता।


संसद, सरकार और प्रधानमंत्री से जवाब चाहने वाले यह न भूलें कि देश को उस विश्वविद्यालय से भी जवाब चाहिए जहां देश के संसाधन झोंके जा रहे हैं। माना कि अकादमिक शैक्षिक कार्यो की तुलना नौकरशाही से लदे दूसरे दफ्तरों से नहीं की जा सकती, लेकिन न्यूनतम मर्यादा और अनुशासन तो होना ही चाहिए। दिल्ली विश्वविद्यालय में जहां आमतौर पर नब्बे प्रतिशत से कम पाने वाले छात्रों का दाखिला नहीं होता वहां प्रथम वर्ष के बाद कक्षाओं में दस-बीस प्रतिशत विद्यार्थियों की उपस्थिति मुश्किल से होती है। कई शिक्षक बीए प्रथम वर्ष की क्लास लेने से यह कहकर कतराते हैं कि, ‘स्कूली आदत के शिकार छात्र क्लास में आ जाते हैं।’ दरअसल शिक्षक को नियमित आना पड़ता है तो यह उसे रास नहीं आता। इसी का परिणाम है कि जहां विश्वविद्यालय की कक्षाएं खाली पड़ी रहती हैं तो वहीं दिल्ली के कुछ इलाकों में कोचिंग कक्षाओं में पांच सौ विद्यार्थी एक साथ पढ़ते नजर आते हैं। दोष विद्यार्थियों का नहीं, शिक्षकों और विश्वविद्यालयों का ज्यादा है। इसलिए सुधार के कदमों की तुरंत जरूरत है, लेकिन सुधार का नाम सुनते ही विरोध के स्वर बजबजाने लगते हैं।


पूर्व कैबिनेट सचिव टीएस सुब्रमण्यम ने सिफारिश की थी कि शिक्षकों की भर्ती लोक सेवा आयोग की तर्ज पर हो, लेकिन इस पर सन्नाटा पसर गया। शिक्षा की तस्वीर बदलने के लिए एक और सुझाव शिक्षकों का विद्यार्थियों द्वारा मूल्यांकन है। दुनियाभर के शीर्ष संस्थानों में यह लागू है, लेकिन जेएनयू सहित अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालय इसके नाम से ही डरने लगते हैं। ऐसे मूल्यांकन में वही छात्र भाग ले सकते हैं जिनकी उपस्थिति 70 प्रतिशत तक हो। चूंकि छात्रों की उपस्थिति से शिक्षकों की जिम्मेदारी और जवाबदेही बढ़ेगी इसीलिए इस 75 फीसद उपस्थिति के विरोध में शिक्षकों और छात्रों की जुगलबंदी है। शिक्षा के पूरे माहौल को बदलने के लिए हम सभी को आत्ममचिंतन की जरूरत है वरना हमारे मेधावी छात्र अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों की ओर पलायन करते रहेंगे और उसके साथ इस गरीब देश का खजाना भी।


(लेखक साहित्यकार एवं शिक्षाविद् हैं)


लेखक- प्रेमपाल शर्मा


साभार- जागरण

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