समान कानून पर हीला-हवाली

अजीब बात है कि जब हिंदूू मंदिरों, रीतियों पर शिकायत आती है तब हमारे शासक और न्यायाधीश भी खुदमुख्तार बन बैठते हैं। कभी ‘विस्तृत विचार-विमर्श’ या ज्ञानियों से जानने-समझने की जरूरत नहीं समझते। अभी हाल में शनि मंदिर में स्त्री-प्रवेश प्रसंग पर यह देखा गया। लेकिन जब इस्लामी मामलों की शिकायत आए तो आगा-पीछा, टाल-मटोल का अंत नहीं रहता। यहां तक कि जो चीज सीधा अन्याय और अमानवीय है, समानता के संवैधानिक सिद्धांत के विरुद्ध है तथा कई मुस्लिम देशों तक में वर्जित है उस पर भी रोक लगाने में हीला-हवाली करते हैं। इससे न्यायपालिका की निष्पक्षता नहीं दिखती। विचार-विमर्श तो असंख्य बार हो चुका है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 84 प्रतिशत लोग समान नागरिक संहिता के पक्ष में हैं। इनमें बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं और पुरुष भी हैं। केवल कुछ मुस्लिम नेता और मजहबी संगठन इसका विरोध करते हैं। भारत में समान नागरिक कानून हो, यह संविधान सभा से लेकर सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों में भी कहा जा चुका है। संविधान में समान नागरिक संहिता बनाने का बिल्कुल स्पष्ट निर्देश है। इससे अलग यह तथ्य भी है कि दुनिया के किसी सभ्य देश में दो प्रकार के नागरिक कानून नहीं हैं। धार्मिक अल्पसंख्यक भारत ही नहीं, अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, अरब और चीन में भी हैं। कहीं किसी समुदाय को अपने अलग मजहबी कानून की इजाजत नहीं है। सिर्फ भारत में यह भेद-भाव रखकर राष्ट्रीय एकता की प्रक्रिया रोके रखी गई है।1सरला मुदगल मामले (1995) में सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा था, ‘विभाजन के बाद जिन्होंने भारत में रहना चुना वे बखूबी जानते थे कि भारतीय नेता दो-राष्ट्र, तीन-राष्ट्र के सिद्धांत नहीं मानते थे और भारतीय गणतंत्र में एक ही राष्ट्र रहेगा। मजहब के नाम पर कोई समुदाय अपना अलग कायदा चलाने का दावा नहीं कर सकता।
चूंकि पर्सनल लॉ की उत्पत्ति विधायी उपायों से हुई थी इसलिए उसे एक समान नागरिक संहिता बनाकर खत्म या संतुलित किया जा सकता है।’ उसी में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी फैसला दिया था कि विवाह, संपत्ति का उत्तराधिकार आदि मामले धार्मिक स्वतंत्रता के तहत नहीं आते, बल्कि कोर्ट ने जोर देकर रेखांकित किया था कि भारत में ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ का जन्म मजहब से नहीं, बल्कि लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स के बनाए कानून से हुआ था।’ 1791 में यहां वह कानून आया जिसके अनुसार शादी, तलाक तथा संपत्ति विरासत के मामलों में मुसलमान और हिंदूू अपने-अपने धार्मिक चलन से अलग-अलग चल सकते थे। 1832 में ब्रिटिश सरकार ने आपराधिक मामलों में मुस्लिम लॉ को खत्म कर एक समान अंग्रेजी कानून लागू कर दिया। इससे साफ है कि इस्लामी शरीयत अनुल्लंघनीय नहीं है। इसी कारण भारत में मुस्लिम अपराधियों को हाथ काटने, पत्थर मार-मार कर जान लेने, कोड़े लगाने जैसे दंड नहीं मिलते, जैसा शरीयत कहता है, बल्कि हिंदू अपराधियों वाली सजाएं ही मिलती हैं। मगर सिविल मामलों में, शादी, तलाक या संपत्ति के मामलों में हिंदुओं और मुसलमानों को अलग-अलग कर के ब्रिटिश शासकों ने सचेत रूप से फूट और अलगाव को बढ़ावा दिया था। उसका इस्तेमाल भी किया था। उसी नीति को स्वतंत्र भारत में भी कई शासकों ने खुले-छिपे इस्तेमाल किया। इस घातक गलती को ठीक करने के बजाए ‘विचार-विमर्श’ की बात भगोड़ापन है।
सुप्रीम कोर्ट एक बार नहीं, कम से कम तीन बार और समान नागरिक संहिता बनाने को कह चुका है। दो मामले चर्चित भी हुए थे। जोरेन दियेनगेध बनाम एसएस चोपड़ा (1985) तथा मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम (1985)। शाहबानो मामले में मुख्य न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़ ने फैसले में लिखा, ‘धार्मिक स्वतंत्रता हमारी संस्कृति की नींव है। लेकिन जो धार्मिक रीति मनुष्य की मर्यादा, मानव अधिकार का उल्लंघन करती हो वह स्वतंत्रता नहीं, उत्पीड़न है। इसलिए उत्पीड़ितों की रक्षा और राष्ट्रीय एकता के विकास के लिए एक समान नागरिक संहिता परम आवश्यक है।’ अतरू उतने स्पष्ट, सुचिंतित फैसले के बाद अब नए सिरे से किस ‘विमर्श’ की जरूरत हो रही है? यह सब सीधा टाल-मटोल और टाइम-पास लगता है।

अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि इस रवैये के पीछे समुदायों में समानता व भाईचारा बढ़ाने की नहीं, वरन उसे तरह-तरह से बांटे रखकर वोट-बैंक राजनीति चलाने की मंशा रही है। कांग्रेसी और वामपंथी कई अर्थो में उसी नीति पर चलते रहे, जिस पर अंग्रेज थे। अंग्रेजों ने विभिन्न समुदायों के लिए अलग निर्वाचक मंडल, अलग पर्सनल लॉ, अलग अनुसूची, आरक्षण, आदि आविष्कार भारतवासियों में फूट, लोभ और ईष्र्या पैदा करने के लिए किया था। उसी नीति का प्रयोग देशी शासक स्वतंत्र भारत में भी कर रहे हैं। अन्यथा जिस पर संविधान का निर्देश स्पष्ट हो, जिसे भारत की 84 प्रतिशत जनता का समर्थन प्राप्त हो उसे न लागू करने के पीछे और क्या कारण है? यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र ने भी कहा है कि भारत को सभी नागरिकों के लिए परिवार संबंधी एक समान सेक्युलर कानून बनाना चाहिए।
यहां इस्लामी पर्सनल लॉ केवल मुस्लिम औरतों के अमानवीय शोषण को जारी रखने एवं मुसलमानों को हंिदूुओं से दूर तथा अलग रखने के काम आता है। इसे खत्म किए बिना उन्हें मुख्यधारा में लाना और सहज रूप से विकसित होना रुका ही रहेगा। खुद सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नोट किया है कि सामुदायिक भेद-भाव चलते रहने से एक समुदाय को अपने प्रति अन्याय और दूसरे को अपने उच्चाधिकार, विशेषाधिकार का घमंड का बोध होता रहता है। तब क्या होता है? सुप्रीम कोर्ट के ही शब्दों में, ‘जब अन्याय बिल्कुल स्पष्ट हो तो वह संवेदनशील लोगों की सहनशक्ति से बाहर हो जाता है।’ इस चेतावनी को भुलाना और टाल-मटोल करना अन्याय और असंतोष को बढ़ावा देना है। हर हाल में कोई भी अन्याय जारी रहना शासन और न्याय-व्यवस्था के लिए लच्जास्पद है। एक भारत में दो कानून, तीन तलाक और चार बीवियों का चलन खत्म होना ही चाहिए। खुद मुस्लिम महिलाओं को इससे सर्वाधिक सुख होगा। हिंदूुओं को नहीं। हिंदूुओं का हित समान नागरिक संहिता से जुड़ा हुआ नहीं, बल्कि संविधान की धारा 25-31 को सब के लिए समान रूप से लागू करने से जुड़ा है।
लेखक एस. शंकर, राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक रहे हैं,
साभार -दैनिक जागरण

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