भारत एक साथ दो चुनौतियों से जूझ रहा है। एक ओर देश में बीमारों और बीमारियों की तादाद लगातार बढ़ रही तो उनका इलाज करने के लिए योग्य स्वास्थ्यकर्मियों की उपलब्धता घटती जा रही है। वर्ष 2015 के एक अनुमान के अनुसार देश में 30 लाख डॉक्टरों और 60 लाख नर्सो की कमी है। देश में फिलहाल जिस रफ्तार से नए डॉक्टर बन रहे हैं, उस लिहाज से इस अंतर की भरपाई करने में और 50 साल लग जाएंगे। यहां भारत की स्थिति कई देशों से खराब है। ब्राजील में प्रति एक लाख की आबादी पर 59.2 डॉक्टरों की उपलब्धता है जबकि भारत में महज 6.4 की।
आखिर हम इतनी खराब स्थिति में क्यों पहुंचे? इसकी एक वजह तो यही है कि देश की जरूरतों के लिहाज से केंद्र और राज्य सरकारों ने मेडिकल शिक्षा में पर्याप्त निवेश नहीं किया। दूसरी प्राथमिकताओं के दबाव में डॉक्टरों और विशेषज्ञों के लिए सीटों का विस्तार नहीं हो सका। इस अंतर की भरपाई निजी निवेश के जरिये हो सकती थी, लेकिन भारतीय चिकित्सा परिषद यानी एमसीआइ के तहत ऐसी गैर-पारदर्शी और मनमानी नियामकीय व्यवस्था बनी जिससे किसी भी स्तर पर फायदा नहीं हुआ। यह एमसीआइ की र्दुव्यवस्था का ही नतीजा था कि शासन के तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में दुर्लभ सहमति देखने को मिली कि अब एमसीआइ से पीछा छुड़ाकर कोई नई क्रांतिकारी पहल की जानी चाहिए। स्वास्थ्य पर गठित संसद की स्थाई समिति ने अपनी 92वीं रिपोर्ट में इसकी जरूरत पर जोर दिया। एमसीआइ के मनमाने संचालन पर सुप्रीम कोर्ट का भरोसा ऐसा टूटा कि उसने नई व्यवस्था के आकार लेने तक कामकाज देखने के लिए एक अंतरिम निगरानी समिति तक गठित कर दी।
राजग सरकार ने स्वर्गीय प्रोफेसर रंजीत रॉय चैधरी के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था। समिति ने उन सुधारों का खाका तैयार किया जिनके आधार पर नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) विधेयक तैयार हुआ। जनता के परामर्श, सुझावों और प्रतिक्रियाओं के लिए यह विधेयक नीति आयोग की वेबसाइट पर मौजूद भी रहा। प्रस्तावित विधेयक के कुछ खास पहलू हैं। जैसे चुनाव के बजाय प्रतिनिधियों को मनोनीत करना जिसमें मेडिकल क्षेत्र से इतर भी कुछ विशेषज्ञ होंगे। सभी तरह की डिग्रियों, रेटिंग, पंजीकरण और आचार संहिता के लिए एक अलग स्वायत्त बोर्ड का गठन। एनएमसी में त्वरित फैसले लेने के लिए एक कार्यकारी संस्था होगी। एनएमसी को पूर्ण स्वायत्तता हासिल होगी ताकि उसके पास नीतियां बनाने की शक्तियां हों। योग्यता आधारित प्रवेश परीक्षा नीट का भी प्रावधान किया गया है। इससे प्रबंधन और एनआरआइ कोटे से मोटी रकम के माध्यम से प्रवेश के नुकसानदेह चलन से मुक्ति मिलेगी। इससे विभिन्न संस्थानों से पढ़ने के बावजूद मेडिकल शिक्षा में एकरूपता भी आएगी। फिर पेशेवर सेवाएं शुरू करने से पहले भी डॉक्टरों को एक कसौटी से गुजरना होगा। वहीं संस्थानों द्वारा शुल्क, सुविधाओं आदि जानकारियों के खुलासे से समूची व्यवस्था में पारदर्शिता बढ़ेगी।
किसी भी सुधारवादी कदम का एमसीआइ द्वारा विरोध समझ आता है। इसकी मुख्य रूप से तीन पैमानों पर आलोचना हो रही है। एक तो एनएमसी को अलोकतांत्रिक कहा जा रहा है कि इसमें चुने हुए प्रतिनिधियों को जगह नहीं मिलेगी। यह आरोप भी लगाया जा रहा है कि मेडिकल पेशे से इतर विशेषज्ञों को इसमें लाकर स्व-नियमन के विशेषाधिकार से वंचित किया जा रहा है जैसा अख्तियार बार काउंसिल ऑफ इंडिया और रतीय सनदी एवं लेखाकार संस्थान जैसी पेशेवर संस्थाओं को हासिल है। इन दलीलों में दम नहीं है। ब्रिटेन में एमसीआइ की समकक्ष संस्था जनरल मेडिकल काउंसिल में सभी सदस्यों की नियुक्ति सरकार करती है। इसके लिए ब्रिटिश सरकार नियुक्ति आयोग से परामर्श करती है। वहां चुने हुए सदस्यों की व्यवस्था नहीं है, क्योंकि नियामकों का स्वयं चुनाव सैद्धांतिक रूप से अनुचित है। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि दूरसंचार कंपनियां ही ट्राई प्रमुख का चुनाव करें? 12 सदस्यों वाली ब्रिटिश संस्था में भी छह सदस्य मेडिकल पेशे से इतर होते हैं। स्वास्थ्य इतना महत्वपूर्ण विषय है कि उसे केवल डॉक्टरों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि यह पेशा कैसे संचालित हो रहा है, उसमें आम लोगों की राय भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। ऐसे में प्रस्तावित एनएमसी इस मोर्चे पर कैसे खरा उतरेगा? इसका जवाब है मेडिकल सलाहकार परिषद। इसमें राज्यों का भी प्रतिनिधित्व होगा जो स्वास्थ्य एवं मेडिकल शिक्षा का एजेंडा तय करने में अहम साङोदार होंगे प्रस्तावित 46 सदस्यीय परिषद में 37 डॉक्टर शामिल होंगे। वहीं 20 सदस्यीय एनएमसी में भी 11 सदस्य डॉक्टर ही होंगे जहां अहम फैसले लेने का जिम्मा भी डॉक्टरों को ही सौंपा जा रहा है। ऐसे में नई व्यवस्था में डॉक्टरों की भूमिका का अवमूल्यन होने की आशंका पूरी तरह निराधार है। इसमें बस इतना ही किया जा रहा है कि नियमन के दारोमदार पर डॉक्टरों का एकछत्र नियंत्रण खत्म किया जा रहा है।
विधेयक की तीसरी और कड़ी आलोचना इस पर हो रही है कि इससे मेडिकल शिक्षा के व्यावसायीकरण को बेतहाशा बढ़ावा मिलेगा। खर्च की भरपाई के लिए अनैतिक गतिविधियां बढ़ने की आशंका है कि निवेशक स्वास्थ्य शिक्षा में अपने निवेश को वसूलने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। इससे आम नागरिकों को न केवल वित्तीय, बल्कि सेहत के मोर्चे पर भी अनाचार का शिकार होना पड़ेगा। निजी निवेश से संचालित शैक्षणिक संस्थानों में शुल्क नियमन विवादास्पद कानूनी मसला है। कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे संस्थानों द्वारा शुल्क ढांचा तय करने के उनके अधिकारों पर गौर किया है तो अंधाधुंध मुनाफा कमाने को लेकर भी लक्ष्मण रेखा खींची है। जब तक सरकार इसका कोई स्थाई समाधान नहीं निकालती तब तक अंतरिम व्यवस्था के लिए सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक राज्य में प्रवेश प्रक्रियाओं और वहां लिए जा रहे शुल्क की तार्किकता तय करने के लिए हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों की दो समितियां गठित कर दी हैं। शीर्ष अदालत की भली मंशा के बावजूद 23 वर्षो की नियंत्रित व्यवस्था का क्या नतीजा निकला? छात्रों का शोषण बदस्तूर जारी है। हाल में छात्रों के साथ 75 करोड़ रुपये के घपले में एसआरएम यूनिवर्सिटी के कुलपति की गिरफ्तारी दर्शाती है कि यहां गंदगी किस कदर पसरी हुई है। इसकी दूसरी वजह पर भी गौर करना होगा।
देश में एमबीबीएस की करीब 55,000 सीटों के लिए 11 लाख छात्र होड़ में रहते हैं। मांग-आपूर्ति में यह बड़ा अंतर मेडिकल शिक्षा के लालची और अनैतिक प्रवर्तकों के लिए सबसे बड़ा खाद-पानी है। सही प्रवर्तकों के प्रवेश को लेकर एमसीआइ के अवरोध और नीट से पहले रही पक्षपाती प्रवेश परीक्षा से हालात बद से बदतर होते चले गए। बेहतर हो कि शुल्क निर्धारण के लिए पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई जाए। किसी नियंत्रित व्यवस्था के बजाय संस्थानों को ही स्वायत्तता दी जाए। यह कहना भी उचित नहीं होगा कि महज एक कानून स्वास्थ्य क्षेत्र की सभी समस्याओं का समाधान कर देगा। इसके लिए तमाम सुधारवादी कदम उठाने होंगे। बहरहाल किसी भी बड़े लक्ष्य तक पहुंचने के लिए पहला कदम चलना बहुत जरूरी होता है और इस दिशा में एनएमसी ऐसा ही पहला कदम है।
(लेखक नीति आयोग के सीईओ हैं)
अमिताभ कांतअवधेश राजपूत
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