देश में उत्तराखंड शायद अकेला राज्य होगा जहां आज भी अंग्रेजों के जमाने से की गई राजस्व पुलिस व्यवस्था कायम है। लेकिन बदलते दौर में यह व्यवस्था अपराधों पर अंकुश लगाने में कारगर साबित नहीं हो पा रही। लंबे समय से इसमें बदलाव की बात उठ रही है। हालांकि इस दिशा में फिलहाल कोई कदम नहीं उठाया गया। आखिरकार अब उच्च न्यायालय ने भी सरकार को यह व्यवस्था छह माह में खत्म करने के आदेश दे दिए हैं। दरअसल, सौ साल पहले अंग्रेजों ने राजस्व वूसली से जुड़े कर्मचारियों को पुलिस के अधिकार देकर कानून-व्यवस्था के संचालन का दायित्व भी सौंपा था। शायद तब के लिए यह फैसला दुरुस्त रहा हो, वजह यह कि उस जमाने में पहाड़ों में यदा-कदा ही अपराध के बारे में कुछ सुनाई देता था। दरअसल, अंग्रेजी हुकूमत के दौरान वर्ष 1816 में कुमाऊं के तत्कालीन ब्रिटिश कमिश्नर ने पटवारियों के 16 पद सृजित किए थे। इन्हें पुलिस, राजस्व संग्रह, भू अभिलेख का काम दिया गया था। वर्ष 1874 में पटवारी पद का नोटिफिकेशन हुआ। रजवाड़ा होने की वजह से टिहरी, देहरादून, उत्तरकाशी में पटवारी नहीं रखे गए। साल 1916 में पटवारियों की नियमावली में अंतिम संशोधन हुआ। 1956 में टिहरी, उत्तरकाशी, देहरादून जिले के गांवों में भी पटवारियों को जिम्मेदारी दी गई। वर्ष 2004 में नियमावली में संशोधन की मांग उठी तो 2008 में कमेटी का गठन किया गया और 2011 में रेवेन्यू पुलिस एक्ट अस्तित्व में आया। रेवेन्यू पुलिस एक्ट बना तो दिया गया, लेकिन आज तक कैबिनेट के सामने पेश नहीं किया गया। हालांकि अब भी मैदानी क्षेत्रों की तुलना में पहाड़ शांत हैं, लेकिन राज्य बनने के बाद शांत वादियों में शातिरों की हलचल महसूस की जाने लगी है। चोरी और लूट के साथ ही हत्या जैसे जघन्य अपराध भी यहां दर्ज किए जाने लगे हैं। दूसरी ओर पुलिस का कार्य देख रही राजस्व पुलिस के पास न तो शातिरों से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं और न ही स्टाफ। ऐसे में पटवारी लंबे समय से इस दायित्व से खुद को अलग करने की मांग करते रहे हैं। इसके लिए उन्होंने कई बार आंदोलन तक किया। प्रदेश में सिर्फ हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर ही ऐसे जिले हैं जहां राजस्व पुलिस नहीं है, अन्यथा 11 जिलों के 12 हजार से ज्यादा गांवों की सुरक्षा पटवारियों के हाथ में ही है। आलम यह है कि पहाड़ी जिलों में थानों की संख्या दो से लेकर सात तक है।
साभार दैनिक जागरण
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