वायु प्रदुषण से बच्चों का आईक्यू खतरे में

वायु प्रदूषण ऐसी समस्या है, जिससे कोई भी अछूता नहीं है। इंसान से लेकर जानवर तक इसका शिकार हैं। नवजात, छोटे बच्चे और बुजुर्ग तो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, जिनकी सेहत पर यह दूरगामी और घातक असर डाल रहा है। सर्वाधिक शिकार एक साल से कम आयु के बच्चे हैं, जिनके दिमाग पर यह सीधा असर करता है। यूनीसेफ की रिपोर्ट भी कहती है कि यह बच्चों में चिंता और विकास संबंधी बीमारियों को जन्म देकर उनके आईक्यू पर असर डाल रहा है। यह गर्भ में ही भ्रुण को प्रभावित करने लगा है, नतीजतन कम वजन के बच्चे पैदा हो रहे हैं। उनकी प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित हो रही है।


     यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के इंपीरियल और किंग्स कॉलेज के संयुक्त शोध के मुताबिक मां बनने जा रही महिला जब इन रसायनों व वायु प्रदूषक तत्वों के संपर्क में आती है, तो उसकी कोख में पल रहे शिशु के मस्तिष्क के विकास में अवरोध पैदा होता है। दुनिया में 19.2 करोड़ बच्चे औसत से कम वजन के हैं। भारत में तो यह तादाद 9.7 करोड़ है, जो विश्व में सबसे ज्यादा है।


     डायना योनान ने अपने शोध में प्रदूषण के बड़े खतरे गिनाए हैं। इस शोध में 25 वायु प्रदूषक मापकों का 2000 से 2014 तक दक्षिण कैलिफोर्निया में प्रदूषण नापने में प्रयोग किया गया। इसमें नौ से 18 साल तक के किशोरों के व्यवहार में प्रदूषण के उच्चतम स्तर में काफी परिवर्तन देखा गया। योनान की मानें, तो 2.5 पीएम विकसित हो रहे मस्तिष्क की संरचना और तंत्रिका तंत्र को क्षति पहुंचाता है। लैन्सेंट पत्रिका की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, व्यायाम से सेहत पर पड़ने वाले प्रभाव वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से बेअसर हो जाते हैं। किसी व्यस्त सड़क पर वाहनों से निकलने वाले धुएं के संपर्क में कुछ देर के लिए भी आने पर दो घंटे तक किए गए व्यायाम का असर खत्म हो जाता है। यह पहला अध्ययन है, जो सेहतमंद लोगों के साथ-साथ पहले से ही दिल और फेफड़ों की बीमारियों से परेशान लोगों में ऐसे नकारात्मक प्रभाव को सामने रखता है।


     अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के चिकित्सक और नीति आयोग के सदस्य डॉक्टर विनोद के पॉल के मुताबिक, रसोई में कुकिंग गैस के इस्तेमाल ने घर के भीतर का प्रदूषण तो कम कर दिया, पर घर के बाहर के प्रदूषण से बचाव अभी सबसे बड़ी चुनौती है। यूनीसेफ के कार्यकारी निदेशक एंथनी लेक कहते हैं कि अगर सिर्फ बच्चों को वायु प्रदूषण के खतरे से बचा लिया जाए, तो चिकित्सा खर्चे में काफी कमी आ सकती है।प्रदूषण की मार से राजधानी दिल्ली ही नहीं, दुनिया के अधिकतर विकासशील व विकसित देश जूझ रहे हैं। दुनिया में 1.7 करोड़ बच्चे वायु प्रदूषण की चपेट में हैं। इनमें से 1.2 करोड़ तो दक्षिण एशियाई देशों के ही हैं, जो अंतरराष्ट्रीय मानक से भी छह गुणा अधिक प्रदूषित माहौल में जीने को अभिशप्त हैं। हमारे देश में तो मानक वायु गुणवत्ता एक सपना है। औद्योगिक प्रदूषण, कृषि अवशेषों का दहन और वाहनों से निकलने वाला धुआं इसमें अहम भूमिका निभा रहा है। सर्दी के मौसम में यह खतरा और बढ़ जाता है। नासा इसकी बड़ी वजह तापमान प्रणाली का उलटना मानता है। देखा जाए, तो सामान्य परिस्थितियों में वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में तापमान कम होता है, जबकि सतह पर अधिक। इससे सतह की प्रदूषित हवा ऊपर की ओर उठती है, जबकि साफ हवा सतह पर आती है। बाद में वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में जमा प्रदूषण बारिश के साथ सतह पर आ जाता है। सर्दियों में यह प्रक्रिया उलट जाती है। नतीजन प्रदूषित हवा ऊपर नहीं जाती और सेहत के लिए घातक स्थिति पैदा करती है।


     हमारे यहां प्रदूषण निवारण के उपाय बुरी हालत में हैं। वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने की खातिर समन्वित कार्ययोजना का अभाव है। हवा की गति को लेकर हमारे यहां आज तक कोई अध्ययन ही नहीं हुआ है। इसमें शहरीकरण बढ़ने और जमीन के इस्तेमाल बदलने यानी उस पर व्यावसायिक गतिविधियों में बढ़ोतरी के चलते हवा की गति का धीमा पड़ना भी एक प्रमुख कारण है। हालात ऐसे ही रहे, तो स्थिति और भयावह होगी। ऐसे में, इस विभीषिका से जन्मी बीमारियों के निदान की बात भी बेमानी हो जाती है। सच तो यह है कि हालात न बदले, तो यह जहर विनाशकारी साबित होगा।


                                                                                                                                                                                                ज्ञानेन्द्र रावत


(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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