उत्तराखंड सरकार का सरकारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए प्रदेश सरकार ऐसे विद्यालयों के एकीकरण की तैयारी में है, जहां छात्र संख्या न्यूनतम मानक के अनुरूप नहीं है अथवा शून्य है। एकीकरण के लिए 20 हजार विद्यालयों में से लगभग तीन हजार का चयन किया गया है। पहले चरण के लिए इनमें से 254 विद्यालय चिह्नित किए गए हैं। इनका अप्रैल से पूर्व अन्य विद्यालयों में विलय कर दिया जाएगा। दरअसल, पहाड़ में कई ऐसे विद्यालय हैं, जहां पर पहली से 12वीं तक के बच्चों को एक ही परिसर में लाया जाना जरूरी माना जा रहा है। इनमें एक किमी के दायरे में आने वाले बेसिक, तीन किमी के दायरे में आने वाले जूनियर हाईस्कूल और पांच किमी के दायरे में आने वाले हाईस्कूल व इंटरमीडिएट विद्यालय शामिल हैं। सरकार की सोच है कि विद्यालयों की संख्या सीमित करने से बेहतर शैक्षिक माहौल तैयार करने में मदद मिलेगी। वैसे देखा जाए तो जिन विद्यालयों को महज नफरी बढ़ाने के लिए खुला रखा गया है, उनके होने का न तो कोई औचित्य है और न इसे व्यावहारिक ही माना जा सकता। ऐसा भी नहीं कि चार-छह छात्र संख्या वाले ये विद्यालय उपलब्धियों के झंडे गाड़ रहे हों। यहां भी शिक्षा का स्तर वैसा ही है, जैसा दो-ढाई सौ छात्र संख्या वाले विद्यालयों का है। कायदे से तो इन विद्यालयों में पढ़ रहे छात्रों को असाधारण होना चाहिए था। क्योंकि गिनती के छात्रों पर शिक्षक जिस संजीदगी से ध्यान दे सकते हैं, उतना ध्यान ज्यादा छात्रों पर दे पाना संभव नहीं हो पाता। बावजूद इसके ऐसे विद्यालय ज्यादा दयनीय स्थिति में हैं। जाहिर है इनका खुला रहना सरकारी धन की बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं। हालांकि, सवाल यह भी है कि क्या विद्यालयों के एकीकरण कर लेने भर से ही शिक्षा व्यवस्था सुधर जाएगी। वर्तमान में जैसे हालात हैं, उससे तो यह संभव नहीं लगता। एक तरफ सुविधा-संपन्न अंग्रेजी माध्यम स्कूल हैं, और दूसरी तरफ सरकारी विद्यालय। जहां, सत्र समापन तक तो पुस्तकें व ड्रेस ही नहीं मिल पाती। ऐसे में सरकारी विद्यालयों के छात्रों से सरपट दौड़ने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। फिर अधिकांश शिक्षकों का हाल यह है कि उन्हें अपनी खामखां की चिंताओं से ही फुर्सत नहीं मिल पाती। साल का ज्यादातर वक्त तो उनका वेतन और सुगम-दुर्गम की लड़ाई में बीत जाता है। बाकी कसर सरकारी अवकाश व प्रतिकूल मौसम पूरी कर देता है। ऐसी स्थिति में सरकार को बदलाव का बहुकोणीय दृष्टिकोण अपनाना होगा। तभी सही मायने में सरकारी शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।
साभार जागरण
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