मानसून के दौरान उत्तरकाशी में भारी बरसात होती है। गांव अलग-थलग पड़ जाते हैं। भागीरथी उफान पर आ जाती है। गढ़वाल के दबड़-खाबड़ और कच्चे पहाड़ों पर बड़ी-बड़ी चट्टानों के टूटने से इस समय खतरनाक भूस्खलन भी आते हैं। इसी मौसम में हमने गंगा व यमुना की घाटियों के 20 स्कूलों का दौरा किया। पुराने दौर में यहां कभी-कभार इक्का-दुक्का साहसी शिक्षक मिल जाता था। इस बार 45 से ज्यादा शिक्षक-शिक्षिकाओं में मुङो जो जज्बा देखने को मिला, वह उनके विकास और प्रतिबद्धता के उस सफर को बता रहा था, जो आत्म-विकास से ही संभव होता है। यहां मैं उनमें से कुछ का ही जिक्र कर पाऊंगा। लता गांव में अपर प्राइमरी स्कूल के शूरवीर सिंह खरोला अपने रोजमर्रा के अनुभव बिना नागा डायरी में लिखते हैं। उनकी डायरी में किसी रोज अपने विद्यार्थियों के साथ किए गए किसी प्रोजेक्ट में पक्षियों के जीवन चक्र पर बातचीत करने की खुशी होती है, तो किसी रोज कोई और फर्न को ठीक ढंग से न समझा पाने की निराशा, तो किसी दूसरे रोज उनका डायरी लेखन स्कूल में नए दाखिल हुए उदास व परेशान बच्चे पर एक भावनात्मक लेख का रूप ले लेता है। उधर उत्तरकाशी के शहर में तमाम प्राइवेट स्कूलों के बीच ज्ञानसु का सरकारी प्राइमरी स्कूल है, जिसमें 70 बच्चे और चार टीचर हैं। 2010 से इस स्कूल में पढ़ा रहीं रामेश्वरी को यह साबित करने की चुनौती बेहद पसंद है कि उनके बच्चे पड़ोस के प्राइवेट स्कूलों की ही तरह या उनसे भी बेहतर सीख रहे हैं। अपने सहकर्मियों के साथ वे हर रोज के कामकाज का लेखा-जोखा लेती हैं। सतत और व्यापक मूल्यांकन (सीसीई) के अंतर्गत हर बच्चे की प्रगति पर उनकी टिप्पणियों से उनकी प्रतिबद्धता साफ झलकती है। स्कूलों में बच्चों को छुट्टी लेने के एक मानक आवेदन की नकल उतरवा कर मशीनी ढंग से पत्र लेखन सिखाया जाता है। रामेश्वरी की कक्षा में यही काम रोमांचक बन जाता है। वह बच्चों से हर संभव प्रकार के आवेदन पत्र लिखने को कहती हैं। उनके विद्यार्थी अपने लिखे पत्र उनको दिखाते हैं, कुछ पत्र नगरपालिका को लिखे गए हैं पानी, बिजली व सड़क के लिए। एक छात्र ने तो संपादक को ही पत्र लिखकर अपना निबंध छापने को कहा। रामेश्वरी भी रोजाना डायरी लिखती हैं। इसमें उनकी ऊर्जा झलकती है। बारकोट जाने के क्रम में देवदार के खूबसूरत जंगलों से होते हुए आप गंगा घाटी से यमुना घाटी में कदम रखते हैं। वहां जाते हुए बंदरपूंछ की बर्फ से ढकी पर्वत श्रृंखला गंगानी के मॉडल स्कूल तक के पूरे सफर में हमारे साथ रही। इस स्कूल में आने वाले किसी व्यक्ति को जो बात सबसे पहले दिखेगी, वह है इसके पांच शिक्षक-शिक्षिकाओं की सहभागिता। हमारे साथ धूप से सराबोर बरामदे में बैठा हुआ हर टीचर अपने सहकर्मी के बारे में ही कुछ बताने को ज्यादा उत्सुक है। अचानक मनबीर सिंह उठते हैं और लाइब्रेरी से एक पतली सजिल्द किताब लाते हैं, जिसका शीर्षक है रंवाल्टी की अखण (मोटे तौर पर इसका अर्थ हुआ रंवाल्टी बोली के मुहावरे)। यह किताब उनके साथी शिक्षक ध्यान सिंह रावत ने लिखी है। रंवाल्टी गढ़वाल की एक बोली है। ध्यान सिंह ने अपनी आंखों से समृद्ध लोक साहित्य, मुहावरे व लोकोक्तियों को धीरे-धीरे लुप्त होते देखा। यह देखकर उन्होंने रंवाल्टी के सभी मुहावरों को खोजने और उनका दस्तावेज तैयार करने का कठिन बीड़ा उठाया। उन्होंने अपने छात्रों को इस काम में लगाया और उनके दादा-दादियों व गांव के बड़े-बुजुर्गो से बात करके लगभग हरेक मुहावरा खोज निकाला। वहां रेखा चमोली हैं। उस स्कूल की एक चिंतनशील और बेबाक अध्यापिका, जिनकी डायरी एक किताब की शक्ल में आ रही है। चंद्रभूषण हैं, जिनके लेख नियमित रूप से अखबारों व पत्रिकाओं में छपते हैं। रजनी नेगी हैं, जो कविताएं और कहानियां लिखती हैं। मैं ऐसी लंबी फेहरिस्त पेश कर सकता हूं। 2005 में जब प्रवाह जैसे न्यूजलेटर उत्तरकाशी के स्कूलों में भेजे जाते थे, तो उसमें कम ही लोगों की दिलचस्पी होती थी। तब सबको साथ बिठाकर पत्रिका के कुछ लेखों को पढ़ने और उस पर बातचीत के लिए मनाया जाता था। 12 साल बाद आज प्रवाह 64 पृष्ठों की पत्रिका है, जिसके कई लेख खुद इन शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिखे होते हैं।
एस गिरिधर
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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