नजरिया: गुजरात में शिक्षा के दावे और हकीकत


पढ़ाई के साथ-साथ इंसान की क्षमता तो बढ़ती है लेकिन साथ ही उसके लिए रोजगार के रास्ते भी खुलते हैं. इसी वजह से पढ़ाई के खर्च को एक तरह का निवेश माना जाता है.
रोजगार के परंपरागत साधन जैसे कि जमीन, लघु और कुटीर उद्योग दिन-ब-दिन कम होते जा रहे हैं. ऐसी स्थिति में पढ़ाई और रोजगार के बीच का जो सीथा संबंध था उसका महत्व बढ़ रहा है और इसीलिए शिक्षा की मांग भी बढ़ रही है.
इसीलिए किन राज्यों का विकास कितना हुआ है, ये जानने के लिए वहां पर हुए शिक्षा के विकास को समझना पड़ेगा. गुजरात की आर्थिक वृद्धि दर बहुत ऊंची है लेकिन शिक्षा की स्थिति देखें तो निराशा ही मिलती है. राज्य की आर्थिक विकास के जो लाभ हुए हैं, वो शिक्षा के विकास में कहीं नजर नहीं आते.
गुजरात में शिक्षा के लिए जरूरी बुनियादी सुविधाओं में सुधार तो है लेकिन सरकारी आंकड़ों में जो दृश्य दिखता है, असलियत उससे कहीं अलग है. शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर चिंताजनक रूप से नीचे आया है. इसमें कोई सुधार दिखता नहीं है. राज्य में साक्षरता का आंकड़ा 2001 में 69.14 फीसदी था जो 2011 में 78.03 फीसद तक हुआ है.
लेकिन दूसरे राज्यों की तुलना करें तो गुजरात कहीं पीछे है. इस सूची में गुजरात 16वें स्थान से गिर कर 18वें स्थान पर आ गया है. स्कूलों में बच्चों के दाखिलों की संख्या बढ़ी है, लकिन 11 से 14 साल के 5 फीसदी बच्चे भी भी स्कूल नहीं पहुंच पा रहे. और इस सूची में गुजरात अन्य राज्यों की तुलना में 22वें स्थान पर है.
इसका मतलब ये होता है कि देश के कई सारे राज्यों ने गुजरात से अधिक प्रगति की है. कक्षा 4 तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाने वाले बच्चों की संख्या 1999-2000 में 22.30 फीसदी थी. जिससे घट कर 2014-15 में ये 1.97 फीसदी हुई और कक्षा 5 से 7 तक के विद्यार्थियों की संख्या 41.88 फीसदी से घट कर 6.61 फीसदी हुई है.
इन सालों के दौरान पिछले कुछ सालों में एक शिक्षक के द्वारा चलाए जाने वाले स्कूलों का संख्या 1.5 फीसदी है. और एक ही कक्षा वाले स्कूलों की संख्या 1.1 फीसदी है. गुजरात सरकार के शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 99.9 फीसदी स्कूल में लड़कियों के लिए अलग शौचालय है और पीने के पानी की सुविधा है.
99.7 स्कूलों में बिजली है और 70.7 फीसदी स्कूलों में कंप्यूटर लैब्स हैं. गुजरात मे बुनियादी सुविधाओं की बात की जाए तो वो दूसरे राज्यों की तुलना में अच्छी है. बीते पांच सालों में काफी सुधार भी आया है.
गुजरात में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था श्प्रथम शिक्षकीश् स्थिति का आकलन करने के लिए श्असरश् नाम से सालाना सर्वे करती है. इस सर्वे के नतीजों से सरकारी आंकड़े मेल नहीं खाते. सर्वे के मुताबिक, गुजरात की 81.1 स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय है और 84.6 फीसदी स्कूलों में पीने के पानी की व्यवस्था है.
इस सर्वे से ये भी पता चलता है कि 75 फीसदी स्कूलों में कंप्यूटर लैब्स हैं लेकिन सिर्फ 31.5 फीसदी स्कूलों में ही इनका इस्तेमाल किया जा रहा है. शिक्षा की गुणवत्ता पर इस सर्वे से काफी जानकारी मिलती है.
गुजरात सरकार ने 2009 से गुणवत्ता की समीक्षा करने के लिए श्गुणोत्सवश् (एक तरह की समीक्षा) की शुरुआत की और स्कूलों को श्एश्, श्बीश्, श्सीश् और श्डीश् ग्रेड में बांट कर इन ग्रेड के अनुसार स्कूलों के लिए ख़ास योजना तैयार की. जिन स्कूलों के परिणाम सुधर नहीं पाए, उन स्कूलों को स्वैच्छिक संस्थाओं को देने की घोषणा की गई थी.
लेकिन 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने चिंता जताई थी कि इस दिशा में कोई ख़ास काम नहीं हो रहा है. जनवरी 2017 में सरकार ने कहा कि राज्य में श्डी-ग्रेडश् अब कोई भी स्कूल नहीं है. इसका मतलब ये हुआ कि राज्य के सभी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार हुआ है.
लेकिन प्रथम के 2016 के रिपोर्ट के अनुसार तस्वीर कुछ और ही है. रिपोर्ट के मुताबिक, सरकारी स्कूलों में पांचवी कक्षा में पढ़ रहे 47 फीसदी छात्र और आठवीं कक्षा में पढ़ रहे 23.4 फीसदी छात्र दूसरी कक्षा के गुजराती यानी कि अपनी मातृ-भाषा की पुस्तक पढ़ नहीं पा रहे हैं.
पांचवी कक्षा के 83.9 फीसदी और आठवीं कक्षा के 65.2 फीसदी छात्र साधारण गुणा भाग नहीं कर पा रहे हैं. इन दोनों कक्षा में शिक्षा के प्रदर्शन के आधार पर भारत के 27 राज्यों में गुजरात का स्थान 24वां और 19वां है. देखा जाए तो ग्रामीण इलाकों में सिर्फ प्राथमिक स्कूलों में 10.2 फीसदी छात्र ही निजी स्कूलों में प्रवेश लेते हैं.
ऐसे में ये आंकड़े 89.8 फीसदी छात्रों की स्थिति की बात करते हैं. केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार, गणित और अंग्रेजी में छात्रों के प्रदर्शन में अन्य राज्यों के मुकाबले गुजरात का नंबर 21वां और 27वां है.
गुजरात बोर्ड आयोजित के द्वारा कराई जाने वाली एसएससी की परीक्षाओं में गुजराती भाषा विषय में नतीजे साल-दर-साल ख़राब होते जा रहे हैं. भाषा की समझ के अभाव से छात्रों को दूसरे विषय समझने में भी मुश्किलें पेश आ रही हैं. गुजरात बोर्ड की पाठ्य पुस्तकों की गुणवत्ता पर भी सवाल उठते आ रहे हैं.
जिसकी वजह से गुजरात के छात्र राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में ख़राब प्रदर्शन कर रहे हैं. राष्ट्रीय स्तर की नीट और जेईईई जैसी प्रतियोगी प्रवेश परीक्षाओं में गुजरात के छात्रों को हल करने में मुश्किल होने की शिकायतें मिलती आ रही हैं. शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने में प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों का बड़ा महत्व है.
बदनसीबी से गुजरात की काफी स्कूलों में (सरकरी और निजी स्कूलों में) शिक्षकों की कमी है. जो भी हैं वो उनमें से सभी प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है. 2014-15 में प्राथमिक स्कूलों में 12,281 शिक्षकों की जरूरत थी. अहमदाबाद जिले में 11 फीसदी और कच्छ जिले में 24.70 फीसदी शिक्षकों की कमी थी.
2015 में उच्च प्रथमिक कक्षा के विज्ञान और गणित के 2,413 शिक्षकों की कमी होने की बात थी. सरकारी स्कूलों में लगभग 30 फीसदी कार्यभार पारा-टीचर्स संभाल रहे हैं. जिनको ऐडहॉक के तौर पर लिया जाता है उन्हें 5,000 रुपये की मासिक तनख्वाह पर रखा जाता है. जनवरी 2017 में उनकी सैलरी 73 फीसदी बढ़ाने की घोषणा की गई थी.
अगर ये घोषणा चुनाव के मद्देनजर की गई है तब भी इस पर अमल होना बेहद जरूरी है. इसके अलावा स्कूलों के टीचरों को जनगणना और चुनाव जैसे बहुत सारे कामों में लगाया जाता है जिसकी वजह से सरकारी स्कूलों में साल के कई दिन शिक्षण कार्य नहीं हो पाता.
अच्छी शिक्षा के लिए अभिभावक अपने बच्चों को निजी स्कूलो में डालना पसंद करते हैं जो काफी महंगे होते हैं. निजी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा की सालाना फीस 5000 रुपये से लेकर सवा लाख तक होती है. कई निजी स्कूलों के पास जरूरी सुविधाएं नहीं होती जैसेकि लैब, लाइब्रेरी और खेल का मैदान.
शिक्षकों को स्तर सुधारने के लिए प्रशिक्षणों का आयोजन नहीं होता, जिसकी वजह से नई शिक्षा की पद्धतियों के बारे में उन्हें जानकारी नहीं होती. छात्र के संपूर्ण विकास के बदले पूरी व्यवस्था परीक्षा के इर्द-गिर्द घूमने लगती है. स्कूलों के बिगड़े हुए स्तर को ध्यान में रख कर अभिभावक ट्यूशन की मदद लेते हैं.
इससे उनका खर्च ही बढ़ता है और छात्र पर पढ़ाई का अतिरिक्त दबाव बनता है. खेल कूद और दूसरी गतिविधियों के लिए छात्रों के पास समय नहीं रहता. इस कारण उनका संपूर्ण विकस के बजाय सिर्फ परीक्षा परिणाम सुधारने पर ही जोर रहता है. श्शिक्षा मजेदार होनी चहिए, बोझ नहींश् यह मात्र दीवार पर लिखा एक स्लोगन बन कर रह गया है.
छात्रों के संपूर्ण विकास को केंद्र में रख कर सिलेबस बनाती है, सालाना पचास हजार से एक लाख रुपये तक की फीस लेने वाले अंतरराष्ट्रीय बोर्ड या केंद्रीय बोर्ड के साथ जुड़े मंहगे सकूलों में स्वाभाविक तौर पर कुछ गिने चुने धनी परिवारों के बच्चे ही जाते हैं. सामान्य परिवार ऐसे स्कूलों में बच्चों का दखिला नहीं करा सकते.
उच्च शिक्षा की स्थिति में भी कोई ख़ास फर्क नहीं है. आज गुजरात में छह राष्ट्रीय स्तर के शिक्षा संगठन, 18 राज्य सरकार संचालित विश्वविद्यालय, चार कृषि विश्वविद्यालय, तीन केंद्रीय विश्वविद्यालय और 19 निजी विश्वविद्यालय हैं. सरकार संचलित विश्वविद्यालयों में भी निजी कॉलेजों की संख्या बढ़ी है.
और चूंकि ये लाभ के लिए खोले गए होते हैं तो इनकी फीस भी अधिक होती है. फीस पर लगाम लगाने के लिए सरकार संचालित समिति है. 2016 में 136 इंजिनीयरिंग कॉलेज गुजरात टेक्निकल युनिवर्सिटीज के साथ जुड़े हुए थे. इनमें से सिर्फ 17 कॉलेज सरकारी हैं या सराकारी मदद पर चलते हैं, 87 कॉलेज सेल्फ फाइनेंस वाले हैं.
इसी तरह रातों रात उगने वाले कॉलेजों के पास स्वाभाविक तौर पर कुशल शिक्षक नहीं होते, जरूरी साधन और बुनियादी सुविधएं भी नहीं होतीं. जिसके कारण कई कॉलेज डिग्री देने के लिए जरूरी न्यूनतम सिलेबस तो ख़त्म कर देते हैं लेकिन छात्रों को उच्च शिक्षा में जरूरी कौशल की तालीम नहीं देते.
ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन के 2015-16 के आंकड़ों के मुतबिक, मात्र 20 फीसदी इंजीनियरिंग के छात्रों को नौकरी मिल पाती है. इसके पीछे तीन कारण हैं- पहला, उद्योंगों की मांग से ज्यादा छात्र इंजीनियरिंग की डिग्री के साथ बाहर आते हैं.
दूसरा, गुजरात के कॉलेजों में बनाए गए कोर्स उद्योगों की जरूरतों के मुताबिक नहीं हैं. इसकी वजह से ऐसे छात्रों की मांग नहीं रह जाती. और तीसरा, कम्युनिकेशन स्किल के मामले में बहुत सारे छात्र पीछे रह जाते हैं. 2016 में इंजीनियरिंग की 71,000 सीटों में से 27,000 सीट्स खाली रही थी.
कुछ सालों पहले तक एमबीए और एमसीए की डिग्रियों को प्रतिष्ठित माना जाता था. लेकिन आज की स्थिति इससे इतर है. इन कोर्सेज में एडमिशन के लिए काफी तैयारी करनी पड़ती थी लेकिन इनमें आज 60 फीसदी सीटें खाली हैं.
2016 में गुजरात टेक्नॉलॉजिकल यूनिवर्सिटी में एमबीए के छात्रों के लिए आयोजित किए गए रोजगार मेले में 1.5 लाख से ले कर 2.5 लाख रुपये जितनी कम सालाना तनख्वाह देने वाली कंपनियां आई थीं. जिनमें कुछ गिनेचुने छात्रों को ही नौकरियां मिली थीं.
सालाना एक लाख रुपये जितनी फीस भर कर डिग्री लेने के बाद काफी छात्रों को सेल्समैन जैसे काम मिलते हैं और उसमें भी समय की कोई मर्यादा नहीं होती.
बाजार में रोजगार के अवसर पैदा करने और उस हिसाब से कॉलेजों में अलग-अलग तरह के कौशल विकास के लिए जरूरी संख्या में सीटों की जरूरत को नजर में रखकर लंबे वक्त की योजना बनाना सरकार का काम है. सरकार की तरफ से ऐसी कोई भी योजना सामने नहीं आ रही है. और शिक्षा के पूरे क्षेत्र को बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है.
बीएड आर्किटेक्चर, लॉ जैसे विषयों के लिए भी काफी कॉलेज खुल गए हैं. ये कॉलेज कितने छात्रों को टिकाऊ और सम्मानजनक नौकरियां दिला पाएंगे, ये आने वाले समय में ही पता चल पाएगा. राज्य के बजट में शिक्षा के लिए बहुत कम पैसे आवंटित होते हैं.
साल 1986 में कोठारी कमीशन ने राज्य सरकारों को शिक्षा पर उनकी घरेलू जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च करने का सुझाव दिया था. जबकि गुजरात में राज्य के कुल जीडीपी का 1.57 से 2.0 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है. उसमें भी बुनियादी सुविधाओं पर ही ध्यान दिया जाता है.
लेकिन शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए शिक्षकों की भर्ती, उनका प्रशिक्षण और पठन पाठन की नई पद्धतियों को अपनाने को लेकर ध्यान देने की बहुत जरूरत है. जिससे आने वाली पीढ़ियां बाजार की मांग और आपूर्ति के लिहाज से खुद को तैयार कर सकें और राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा में टिक सकें.


साभार बीबीसी


 

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