नया गोदान : व्हाट ऐन आइडिया

प्रेरणा प्रेरणा है। कभी भी, कहीं से भी, किसी से भी मिल सकती है। ‘न जाने किस भेष में बाबा, मिल जाएं भगवान रे।’ भगवान तो नहीं मिले, लेकिन ‘प्रेरणा’ मिल गई। ऐसी कि इसके आगे सभी प्रेरणाएं दो कौड़ी की लगती हैं। जब से मिली है, पेट में दर्द हो रहा है। न बताया, तो बीमार हो जाऊंगा। प्रेरणा अभिव्यक्ति मांग रही है।कवि हों या कथाकार या नाटककार या साहित्य में एंट्री लेने वाले होंय हिंदी अकादेमी की लाइन में हों, साहित्य अकादेमी की लाइन में हों या किसी निजी पुरस्कार की लाइन में या ग्यारह लाख वाली लाइन में, इस प्रेरणा ने जो आइडिया मुझे दिया है, वह साहित्य मात्र का कल्याण करने वाला है। यह साहित्य को उसकी परंपरा और असली जमीन से जोड़ने वाला है। यह साहित्य में बस चुके अकेलेपन, अजनबीपन, तनाव, अस्मिता के खो जाने से उपजे बेगानेपन, खोया-खोयापन, अटकन, भटकन, लटकन, मटकन, फटकन, झटकन आदि नाना व्याधियों से मुक्ति दिलाने वाला है। न जाने कब से नाना प्रकार के ‘वाद’ साहित्य में वाद, विवाद, संवाद के नाम पर मवाद पैदा करते हुए उसे बीमार किए हुए हैं। छायावाद, प्रतीकवाद, प्रयोगवाद, प्रगतिवाद, संघर्षवाद, आत्मसंघर्षवाद, नई कविता, नई कहानी, नई समीक्षा, प्रतिबद्धता, अनुबद्धता, संबद्धता, मार्क्सवाद, नव्य मार्क्सवाद, उत्तर मार्क्सवाद, आधुनिक बोध, आधुनिकता, आधुनिकतावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद, अस्मितावाद, सबको खत्म कर साहित्य को उसके ‘परमरूप’ तक पहुंचाने वाला है। इस प्रेरणा ने मेरी सोई हुई प्रतिभा को जगा दिया है। जब से यह जगी है, मुझे जगाए हुए है। मैं हिंदी साहित्य के सभी बड़े-छोटे, खरे-खोटे, शरीफ-बदमाश साहित्यकारों, वादियों, विवादियों, संवादियों, साहित्य को पंच हजारी से लेकर ग्यारह लखटकिया इनाम देने वाले समस्त अकादमियों और निजी संस्थानों से विनम्र निवेदन करता हूं कि वे आगे से जब भी किसी लेखक को इनाम दें, तो सबको एक-एक देसी नस्ल की गाय ही इनाम में दें। आखिरकार साहित्य का गाय से बेहद प्राचीन और सीधा संबंध रहा है। गोष्ठी, संगोष्ठी, गौरव, गवेषणा, गवाक्ष, गोरस, गोपी, गोप, गोपाल, न जाने कितने शब्द हैं, जो हिंदी साहित्य में न जाने कब से उपयोग में लाए जा रहे हैं। इन सभी की जननी ‘गो’ है। ये सभी ‘गोपद’ से निकले हैं। जब तक साहित्य ‘गोमाता’ से जुड़ा था, तब तक उसे कोई बीमारी नहीं थी। तब न वाद था, न विवाद था, न संवाद था, रचनाकार अपनी कुटिया में बैठे गवेषणा करते हुए गोष्ठियां किया करते थे। गोष्ठी का मतलब ही है गोमाता के बैठने का स्थान। अवश्य ही यह इस कलिकाल की दुष्टता रही कि उसने साहित्यकारों का दिमाग फेर दिया और वे सब गो माता के बैठने के स्थान को हथियाकर अपनी ‘गाष्ठी’ करने लगे। अपनी गोमाता उदार मना है। उसने इसकी आज तक शिकायत नहीं की। लेकिन क्या अब साहित्यकारों का यह फर्ज नहीं कि वे ‘गोमाता’ से जुड़ें, अपनी खोई हुई जमीन से जुडें और अपने साथ अपने साहित्य को भी ‘स्वस्थ’ बनाएं। इसीलिए मेरा प्रस्ताव है कि सम्मान देते वक्त अकादमियों और संस्थानों को लेखकों को गाय देकर ‘गोदान’ शुरू कर देना चाहिए। छोटे लेखकों को गोमाता का असली घी, दूध, दही और गोबर आदि भी दिया जा सकता है। ऐसा हुआ, तो साहित्य से ‘दैहिक दैविक भौतिक’ तीनों किस्म की बीमारियां खत्म हो जाएंगी।


तो आइए शुरू करें ‘नया गोदान’।


लेखक हिंदी साहित्यकार
सुधीश पचैरी

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