नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा पंचायतों को अधिक शक्ति प्रदान करने की कवायद की जा रही थी, मैं तब इंडियन ऑयल कंपनी में केमिकल इंजीनियर के पद पर सरकारी नौकरी कर रहा था। तमाम भारतीय गांवों की तरह चेन्नई से करीब तीस किलोमीटर दूर स्थित मेरे गांव कुटमबक्कम में भी उस वक्त सुविधाओं का टोटा था और सामाजिक विसंगतियां चरम पर थी। मैं एक दलित परिवार से आता हूं और मैने अपने समुदाय के प्रति होने वाले भेदभाव और शोषण को बहुत करीब से देखा है। जब मैं पढ़ता था, तब मेरे कई सजातीय गरीब सहपाटी इंटरवल में केवल पानी पीकर ही दिन काटते थे और वह पानी भी उनकों किसी सवर्ण जाति वाले घरों से नहीं मिल सकता था। मै हर दिन उनके साथ अपना खाना साझा करता था, पर मेरा मन इतने में नहीं भरता था। हमेशा यही सोचता कि कब इतना सक्षम होउगां, जब ऐसे लोगों के दुख भी कम कर सकूं! यह वक्त तब आया, जब नब्बे के दशक मे पहली बार मेरे गांव में पंचायती चुनाव होने थे। मैंने आरामदायक सरकारी नौकरी छोड़ अपने गांव लौटकर उसके उत्थान की योजना बनाने का फैसला किया।
मैं गांव को गरीबी से निकालकर आत्मर्निभर बनाना चाहता था। मेरी ख्वाहिश थी कि गांव का हर बच्चा शिक्षित हो और अपने अधिकारों के बारे में जाने। ये दो बडी वजहें थीं, जिनके आधार पर सामाजिक भेदभाव को काफी हद तक खत्म किया जा सकता था। मैं गांव का सरपंच चुन लिया गया था। मेरी हरिजन बस्ती में अधिकांश लोग शराब पीकर झगड़े करते थे। गरीबी उनकी नियति बन चुकी थी। मेरे गांव के बाहर एक कारखाना था, जल निकासी की स्थायी समस्या थी। मैंने अपने इंजीनियरिंग कौशल का प्रयोग करते हुए कई मजदूरों को काम दिलाकर उस परेशानी को दूर किया। इस आगाज के साथ मैंने अनवरत रोजगार के नए-नए स्त्रोतों को खोजकर लोगों की बेकारी दूर करने की दिशा में काम जारी रखाजैसे-जैसे पंचायतों के अधिकारों में बढ़ोतरी होती गई, मैं गांव में विकास परियोजनाओं की नींव डालता रहा। आज मेरा गांव आर्थिक तौर पर आत्मर्निभर है। आज हरेक घर में कम से कम एक ग्रेजुएट है, और हर परिवार की सालाना आय भी पहले से कई गुणा बढ़ गई है।
साभार अमर उजाला
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