शिक्षकों के हालात का अध्ययन वक्त की जरूरत

देश भर में फेले स्कूलों के शिक्षक जो सोचते हैं क्या हमारा समाज उसे समझने के लिए तैयार हैं। भूरे-छोटे बाल और आस्तीन की सफेद कमीज उसके व्यक्तित्व कहीं ज्यादा प्रभावी बना रही थी। हम लकड़ी की मेज पर पसीने से तरबतर बैठे थे। मेरी कमीज शरीर से चिपकी हुई थी। सितंबर के आखिरी दिनों में धूप इतनी तेज हो सकती है, मुझे नहीं पता था। आसपास के बालू के टीले मानो सुलग रहे थे। फिर भी वह शांत और संयत दिख रहा था। मैं यहां उसका नाम नहीं लूंगा, क्योंकि उसकी पहचान मुझे सुरक्षित रखनी है। उसने मुझे बताया कि वह इसी मरुभूमि में एक मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुआ है। गांव के स्कूल से शुरुआत हुई और फिर नजदीकी शहर के सरकारी कॉलेज में आगे की पढाई की। 22 वर्ष की उम्र में उसका चयन राज्य की पुलिस सेवा में हुआ और वह कॉन्स्टेबल बन गया। पुलिस की नौकरी लोगों में प्रतिष्ठा का मामला था। ऐसा इसलिए, क्योंकि वे हर दिन पुलिसवालों का रुतबा देखते ही हैं, उन्हें उनकी ऊपरी कमाई के बारे में भी पता है।


      वह शख्स अपने पिता से बहुत प्रभावित रहा है, जो कहा करते थे, गरीब को कभी दुख मत देना। बतौर पुलिसकर्मी ये शब्द उसे रोजाना कचोटते रहे। आला अधिकरीयों की ऊपरी कमाई तो धानिकों से हो जाती है, पर कॉन्स्टेबल व सब-इंस्पेक्टर जैसों के लिए खोमचे वगैरह लगाकर बेचने वाले लोग, छोटे किसान व कारोबारी ही इस कमाई के माध्यम हैं। वह इससे बचने की भले ही कोशिश करता रहा, पर पुलिसिया संस्कृति में उसकी भूमिका भी तय ही थी। करीब 15 वर्षों तक वह इसी द्वंद्व से जूझता रहा, और फिर बीएड में दाखिला ले लिया। अच्छी बात यह रही कि इसी बीच राजस्थान सरकार ने शिक्षकों की भर्ती करना शुरू कर दी, नतीजतनख छह वर्ष पहले उसका चयन शिक्षक के लिए हुआ, और उसने पुलिस की नौकरी छोड़ दी।


हम उसी स्कूल के ऑफिस में बैठे हुए थे। वहां के बच्चों के साथ समय बिताने से पहले ही मैं मानसिक तौर पर इस स्कूल को ए ग्रेड दे चुका था। ऐसा, उन्हीं तीनो आधार पर किया गया था, जिस पर हम किसी भी स्कूल को आंकते हैं। पहला, स्कूल की पूरी देखभाल की गई थी। किचन, क्लासरूम, शौचालय-सभी साफ थे। इसने अपने इन्फ्रस्ट्रक्चर और संसाधनों का कल्पना से कहीं बेहतर इस्तेमाल किया था। दूसरा, बातचीत में झलकता छात्रों का आत्मविश्वास, आँखों में कोई डर नहीं, बल्कि जिज्ञासा चमक रही थी। वे अपने कामों में रुचिपूर्वक लगे थे। और तीसरा आधार यह कि बच्चे बिना मार किसी रट्टामार आदत के, अंकगणित आसानी से हल कर पा रहे थे। यानी सब कुछ समझ-बूझकर कर रहे थे। इन सबके बावजूद इस स्कूल में आर्थिक सुरक्षा को लेकर सहयोग का भाव नहीं दिखा, जो हमारे लिए विचारणीय था।


      मैंने उससे उसकी जिंदगी के बारे में पूछा। उसका जवाब था- बतौर एक शिक्षक उसका हर दिन ईमानदार काम का दिन रहा है। और उसे इसका मूल्य भी मिला, जब वह अपने छात्रों को ज्ञान पाते और विकसित होते देख रहा था। वह खुद भी रोजाना कुछ न कुछ नया सीख रहा था। उसे लगता था कि विभागीय अधिकारियों को शिक्षकों पर भरोसा करना चाहिए। उसकी नजर में महज 10 फीसदी शिक्षक ही हैं जिनकी निष्ठा पर संदेह किया जा सकता है। बाकी पर यदि विश्वास किया जाए, तो उनका काम और निखर सकता है। ऐसी सोच उसकी पुलिस विभाग के बारे में भी थी।


      उसी शाम हम इस स्कूल से करीब 90 किलोमीटर दूर एक अन्य जगह पहुँचे। वहां एक कमरे में 58 शिक्षक श्याम बेनेगल का टेलीविजन धारावाहिक संविधान देख रहे थे। यह भारतीय संविधान के निर्माण की कहानी पर आधारित है। बीच-बीच में वे अपने अनुभव  भी साझा कर रहे थे, जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी, आरक्षण और लैंगिक समानता जैसे मसले थे। सभी खुश और संतुष्ट दिखे। इसकी वजह वह नहीं थी। कि बहस में वे जीते थे, बल्कि उन्होंने कुछ नया जाना था। क्योंकि शिक्षक की भूमिका रचनात्मक, जटिल और चुनौतीपूर्ण होती है। आज देश भर के शिक्षकों की भी मांग है। क्या हमारा मुल्क पर स्वर समझ पाएगा, जो देश का भविष्य गढ़ने के एवज में बहुत कम मांग रहे हैं।

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