एक कर्मयोगी जिसने बदल दी दुनिया

आज एक कर्मयोगी की कहानी सुनाती हूं, जिसका जीवन इस बात का उदाहरण है कि परिवर्तन लाने के लिए अपने बल पर इस देश के आम नागरिक कितना कुछ कर सकते हैं। भुवनेश्वर का बाहरी क्षेत्र डॉक्टर अच्युत सामंत की कर्मभूमि है, जहां पच्चीस वर्ष की मेहनत से उन्होंने दुनिया का प्रथम आदिवासी विश्वविद्यालय निर्मित किया है। इसके निर्माण के लिए न ओडिशा सरकार ने पैसा दिया, न ही केंद्र सरकार ने। वहां मैं कुछ वर्ष पहले भी गई थी, पर पिछले सप्ताह जब दोबारा गई, तो ऐसा लगा कि इस विश्वविधालय में मैं नरेन्द्र मोदी के न्यू इंडिया का सपना सच होते देख रही हूं। वहां सौर ऊजा से बिजली मिलती है, स्किल इंडिया जमीनी तौर पर देखने को मिलता है और करीब 14,000 अदिवासी बेटियां पढ़ती हैं।


डॉक्टर सामंत ने इस विश्वविद्यालय के निर्माण में इतना खून-पसीना बहाया है, इतनी मुश्किलों का सामना किया है कि ईश्वर में उनकी पक्की आस्था न होती, तो उन्होंने आत्महत्या कर ली होती। उस बुरी समय के बारे में वह आज मुस्कराकर बताते हैं, लेकिन अब भी उनके शब्दों में दर्द है। वह कहते हैं, मैंने दोस्तों से सोलह लाख रुपये उधार लिए थे और इतना पैसा लौटाने के लिए मेरे पास कोई साधन नहीं था। सो सोचा कि आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता नहीं है। उस समय यदि पंजाब नेशनल बैंक ने मुझे बिना कोई वॉरंटी के 25 लाख रुपये का कर्ज न दिया होता, तो शायद मैं यहां आपके साथ बैठकर बातें न कर रहा होता।


उस कर्ज से डॉक्टर सामंत ने अपने कर्ज चुकाए और बाकी पैसों से केआईएसएस और केआईआईटी की नींव रखी। कलिंगा इंस्टीटयूट ऑफ सोशल साइंसेज में 20,000 बच्चे उन पेसों से पढ़ते हैं, जो केआईआईटी में मेडिकल कॉलेज भी है और दो सौ मरीजों के लिए अस्पताल भी और वहां देश भर से बच्चे पढ़ने आते हैं।


      इन दोनों विश्वविद्यालयों को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि विश्वास करना मुश्किल है कि इतना बड़ा काम एक व्यक्ति ने कैसे किया। यह सवाल जब मैंने, डॉक्टर सामंत से पूछा, तो उन्होंने कहा, मेरी ईश्वर में बहुत मान्यता है सो कभी-कभी स्वयं लगता है कि मुझे माध्यम बनाकर यह काम ईश्वर ने किया है। लेकिन सच यह भी है कि इस काम में डॉक्टर सामंत ने अपना पूरा जीवन समर्पित किया है। आज भी वह अट्ठारह घंटे काम करते हैं और किराये के एक छोटे मकान में अकेले रहते हैं, क्योंकि शादी करने के लिए भी उन्हें फुर्सत नहीं मिली।


      मैंने जब उनसे पूछा कि उन्होंने अपना जीवन आदिवासी बच्चों के लिए समर्पित करना क्यों तय किया, तो उन्होंने कहा मैंने अपने बचपन में बहुत गरीबी देखी थी। मैं चार साल का था, तभी मेरे पिता का देहांत हो गया। मेरी विधवा मां ने अपने आठ बच्चों को इतनी मुश्किल से पाला कि कभी-कभी दो दिन तक हमें खाना तक नहीं मिलता था। सो मैंने तय किया कि मैं गरीब बच्चो के लिए कुछ ऐसा करूंगा कि उनके जीवन में इस तरह की कठिनाइयां न आएं। ओडिशा  में सबसे गरीब आदिवासी बच्चे होते हैं।


      देश के राजनेताओं ने डॉक्टर सामंत के काम को सराहा जरूर है, लेकिन अभी तक उन्हें पद्म पुरस्कार से सम्मानित नहीं किया गया है। उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान मिला होता, तो शायद केआईएसएस और केआईआईटी के लिए इकट्ठा करना थोड़ा आसान हो जाता।


                                      लेखक - तवलीव सिंह


                                     

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