मेरे परनाना, शिवानी जी के दादा पं. हरिराम पाण्डे महामना मदन मोहन मालवीय के मित्र सहकर्मी शिक्षक थे। मालवीय जी के साथ उन्होंने भी याचक बनकर धन संचय कर एक उदात्त उच्च शिक्षा केंद्र के रूप में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना का सपना साकार किया। उनके समय में याचक, हिंदू, सनातन या धर्म सरीखे शब्द वैसे संकीर्ण नहीं हुए थे जैसे वे आज हो गए हैं। उनकी कमानी तब सभी धर्मों के प्रेममय सह-अस्तित्व और समूचे विश्व के बेहतरीन ज्ञान के निरंतर प्रवाह से देश के सभी युवकों-युवतियों को समृद्ध बनाने की कामना तक फैली हुई थी। इसीलिए इस पुण्य कार्य में देश के जाने माने धनिकों, जनसामान्य और हिंदू-मुसलमान राजे-रजवाड़ों ने अपना योगदान दिया। मेरे नाना तब रामपुर रियासत में दीवान थे और उनसे हार्दिक सौमनस्य रखने वाले नवाब साहब ने भी 1933 में स्वेच्छा से इस काम के लिए एक लाख रुपये की राशि दी थी। लगभग उसी समय मालवीय जी की ही प्रेरणा से हरिराम जी ने तमाम वर्जनाएं तोड़कर अपनी दो पोतियों और पोते को सुदूर बंगाल में आदर्श भारतीय सहशिक्षा के अन्य उदार केंद्र शांति निकेतन ही नहीं भेजा, सबको चकित करते हुए वसीयत में सभी पोतियों का नाम उनके भाइयों के साथ लिखाकर घोषणा की कि शास्त्रों के आधार पर उनकी राय है कि पारिवारिक संपत्ति में घर की बेटियों को समान अधिकार पाने का वही हक होता है जो कि बेटों को। इन महामनाओं के जाने के एक सदी बाद हिंदुस्तान के अधिकतर उच्च शिक्षा परिसरों की यात्रा पढ़े-लिखे मध्यवर्ग की प्रतिगामी लिंगभेदी वैचारिकता से हमारा कई स्तरों पर दुखद साक्षात्कार कराती है। खुद उनकेगढ़े बीएचयू परिसर में गए दिनों जो हुआ और जिस तरह से हुआ उसने यौन उत्पीड़कों ही नहीं आज की राज्य पुलिस और विवि के शीर्षस्थ शिक्षाविदों के मन के शर्मनाक प्रतिगामी विचार सारे देश के सामने टीवी पर्दों पर उजागर कर दिए हैं।
दशहरे की छुट्टी के बाद बीएचयू परिसर सामान्य होता दिख रहा है और खबर है कि कुलपति महोदय लंबी छुट्टी पर चले गए हैैं, फिर भी बात निकली है तो दूर तलक जाएगी ही। गुंडों द्वारा छात्राओं के साथ इस परिसर के भीतर छेड़छाड़ होना एक अर्से से आम रहा है। 2015 में विवि के त्रिवेणी छात्रावास की लड़कियों ने एक शोधछात्रा के साथ हुई बदसलूकी के खिलाफ उसके साथ अधिकारियों से शिकायत की तो पहले तो कुलपति बाहर ही नहीं आए। दो दिन बाद उन्होंने छात्राओं को आश्वासन दिया कि इसे रुकवाने के लिए कुछ किया जाएगा, परंतु हुआ कुछ नहीं। उल्टे उत्पीड़िता के शोध निदेशक पर भी दबाव डाला गया कि वह छात्रा को मामले को तूल न देने को कहें। इस साल फिर मार्च में विवि के महिला महाविद्यालय की चार छात्राओं ने एक टीवी चैनल को साक्षात्कार के दौरान बताया कि घटिया और पूरी तरह शाकाहारी खाने या हॉस्टल के पास रोशनी का समुचित इंतजाम या सीसीटीवी कैमरे न होने की बाबत उनकी शिकायत पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। लड़कियों द्वारा विवि लायब्रेरी सुविधा का लड़कों की तरह इस्तेमाल करने या परिसर पर सिक्योरिटी की तैनाती के बाद भी शाम को सात बजे से पहले हॉस्टल चली आने और फिर बाहर न निकलने आदि को लेकर लागू नियम भी निहायत प्रतिगामी हैं जो उनकी पढ़ाई पर असर डालते हैैं। शिकायती लड़कियों को फिर धमकाया गया और यही नहीं उनके अभिभावकों को भी बुलाकर कहा गया कि यदि वे बाज नहीं आईं तो उनके निष्कासन तक बात जा सकती है। इस पृष्ठभूमि में जब इस बार फिर परिसर-पुलिस, फिर प्रॉक्टर ने अनसुनी की तो छात्राएं वीसी निवास तक चली गईं। कुलपति ने मामले को बातचीत के जरिये सुलझाने के बजाय परिसर के भीतर राजकीय पुलिस बुला ली, फिर तो हालात बेकाबू होने थे, हुए। प्रदेश के जिस अंचल में यह संस्थान है वह अपराधों के लिए कुख्यात है जिनमें से तमाम अपराध औरतों के खिलाफ होते हैं। इलाके के भोजपुरी या हिंदी फिल्म पोस्टर (जिनमें से कई हिट फिल्में इसी इलाके पर आधारित हैं) यौन हिंसा और यौन शोषण की साफ तस्वीर सड़क पर पेश करते हैं। इन फिल्मों की जानकारी शहर के अंधेरे कोनों में लड़कियों को धर दबोचने को लालायित पुरुषों को उनकी कमजोरी का फायदा लेने का खास मौका देती हैं। इस मानसिकता की सबसे अधिक शिकार लायब्रेरी या कक्षा से हॉस्टल आती जाती वे किशोरवय लड़कियां होती हैं जो उदारचेतस् मूल संस्थापकों की इच्छानुसार शायद जीवन में पहली बार स्वायत्तता और पारिवारिक वर्जनाओं से अलग होकर विशुद्ध बौद्धिक परिष्कार का सुखद परिचय पा सकती हैं। पीढ़ियों से महज पुरुषों तक सीमित रखे रहे ज्ञान के सबसे ऊंचे रूपों पर लड़कियां अगर पुरुष सहपाठियों के साथ उनकी तरह खुलेपन से बहस करते हुए गहराइयां मापना चाहें तो एक सहज प्रक्रिया को उनके लिए लगातार कष्टप्रद और निष्कासन के खतरों से भरने का काम निश्चय ही मालवीय जी की आत्मा को कचोटता होगा।
कुलपति जी को हमने वीडियो में छात्रावास जाकर लड़कियों को फटकार लगाते हुए देखा। सामने खड़ी लड़कियों से उन्होंने साफ कहा कि उनका इस कांड को लेकर सार्वजनिक धरना प्रदर्शन करना परिसर को और खुद को सड़क पर बेआबरू करने जैसा था। उनकी नेक राय में लड़कियों को अच्छी बेटी बनी रहना चाहिए और अच्छी बेटी वह होती है जो भाई के कैरियर के लिये अपने कैरियर की कुर्बानी दे दे। उनका यह अविस्मरणीय साक्षात्कार जो किसी छात्रा ने ही शायद रिकार्ड किया था, 2017 के भारत की उन तमाम सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रतिगामिता को उजागर करता है जिसका उत्तर प्रदेश इधर लगातार एक ठोस प्रतीक बन कर उभर रहा है। मीडिया पर सरकारी विज्ञापनों में बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ, महिला सशक्तीकरण का जितना ढोल बजता है, उतना ही लड़कियों को मनुष्य की जगह एक पदार्थ मानने वाला यह एकपक्षीय संवाद विरक्त करता है। उन जैसों की दृष्टि में आज सभी सार्वजनिक स्थलों के उपयोग को लेकर (वे चाहें या नहीं) सभी युवा छात्राओं की आवाजाही पर कड़ा नियंत्रण उचित है। परिसर में सीनियर छात्राएं भी मानसिक या शारीरिक या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का युवकों की तरह उपयोग कतई नहीं कर सकतीं। यदि करती हैं तो उस दशा में पुलिस या मनचलों की हिंसा का शिकार होने का सारा दाय उनका ही माना जाएगा। फिर भी लड़कियां उनको तोड़ती दिखीं तो उनसे परे जाकर सीधे उनके माता-पिता से बात की जाएगी कि वे अपनी बेटी को समझाएं अन्यथा ..।
छुट्टी पर गए कुलपति और उनके जहर उगलते अनुदारतावादी सरपरस्तों के लिए पेश है विवि के कोर्ट की सबसे पहली (12 दिसं.1920 की) बैठक में ऐनी बेसेंट के शब्द ‘..विश्वविद्यालय इमारतें नहीं, वे सौंदर्य और ज्ञान के प्रति प्रेम की निर्मिति होते हैं। इस निर्मिति का लक्ष्य है, आकार का सौंदर्य, रंगों का सौंदर्य, स्थान, कालपात्र का सौंदर्य।’
दैनिक जागरण से साभार
मृणाल पांडे [ लेखिका प्रसार भारती की पूर्व प्रमुख और वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]
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