विश्वसनीयता के संकट से जूझ रहे सरकारी स्कूलों पर अभिभावकों का भरोसा लौटाना सबसे बड़ी चुनौती है। यह कार्य शिक्षक ही कर सकते हैं।
यूं तो शिक्षक दिवस गुरु-शिष्य रिश्ते के आत्मीय बंधन द्योतक है, लेकिन इसी बहाने शिक्षा व्यवस्था पर चिंतन मनन भी किया जाना चाहिए। विशेषकर उत्तराखंड जैसे पहाड़ी प्रदेश में इसकी खासी जरूरत भी है। आंकड़ों के आईने में स्कूली शिक्षा का जायजा लें तो प्रदेश में 20387 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलों में करीब 17 लाख से ज्यादा छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं। इसके अलावा 3260 माध्यमिक स्कूलों में करीब अस्सी हजार छात्र-छात्राएं पंजीकृत हैं। बावजूद इसके शिक्षकों के तकरीबन साढ़े तीन हजार पद रिक्त हैं। पूरे प्रदेश में एक तिहाई स्कूल ही ऐसे हैं, जो छात्र-शिक्षक औसत के मामले में बेहतर कहे जा सकते हैं। ऐसे में गुणवत्ता के स्तर को सहज ही समझा जा सकता है। सरकारी स्कूल चाहे मैदानी क्षेत्र में हों या पहाड़ी इलाके में, विश्वसनीयता के संकट से जूझ रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में तो स्थिति और भी विकट है। कई स्कूल महज एक शिक्षक के भरोसे हैं तो कई में शिक्षक नदारद रहते हैं। जाहिर है इन हालात में अभिभावक सरकारी स्कूलों से पलायन करने में ही भलाई समझ रहे हैं। बेशक सरकार ने दूर-दराज के इलाके में भी स्कूल खोले हैं, लेकिन क्या विद्यालय के नाम पर दो या तीन कमरों के भवन को स्कूल कह देना ठीक होगा। जरा संसाधनों पर गौर करें तो तस्वीर साफ हो जाती है। प्रदेश में 32 फीसद स्कूलों में खेल मैदान नहीं है तो 43 फीसद में सुरक्षा दीवार। पहाड़ में सुरक्षा दीवार एक बड़ा मसला है, जहां हर वक्त भालू और गुलदार का खौफ बना रहता है। पिछले दिनों श्रीनगर के पास एक स्कूल परिसर में दिनदहाड़े गुलदार दहाड़ता रहा और बच्चे सहमे हुए कमरे में बंद रहे। बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती छात्र-छात्राओं के लिए पृथक शौचालय, पेयजल, पुस्तकालय आदि की स्थिति भी दयनीय है। 31 फीसद स्कूलों में पेयजल की सुविधा नहीं है तो इतने ही स्कूलों में शौचालय का भी अभाव है। छात्राओं के लिए पृथक शौचालय को लेकर स्थिति और भी खराब है, 47 प्रतिशत स्कूल में अलग शौचालय नहीं है। अब जरा पुस्तकालय की स्थिति देखें। महज 37 फीसद विद्यालयों में पुस्तकालय मौजूद है। लेकिन ऐसे विषम हालात में भी उम्मीद के दीप जगमगा रहे हैं। देहरादून की शिक्षक कुसम नैथानी हों या शशि शर्मा अथवा उत्तरकाशी के सेवानिवृत्त शिक्षक नारायण सिंह राणा, ये अपने व्यक्तिगत प्रयास से शिक्षा की राह को आसान बना रहे हैं। दरअसल, समस्या का निदान किसी एक के हाथ में नहीं है, इसके लिए सरकार, शासन और शिक्षक को मिलकर प्रयास करने होंगे।
[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]
Comments (0)