सिर्फ तकनीकी शिक्षा काफी नहीं

वर्ष 2015 में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिजिटल इंडिया कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए कहा था कि भारतीय प्रतिभा और सूचना प्रौद्योगिकी मिलकर भारत का भविष्य रचेंगे। उन्होंने आगे कहा था कि प्रौद्योगिकी बहुत महत्वपूर्ण चीज है, जिसे भारत को अपने बच्चों को सिखाना चाहिए। भले देश की 35 फीसदी आबादी ही अभी इंटरनेट से जुड़ी हुई है, पर हाल के वर्षों में कम लागत वाले मोबाइल फोन के विस्तार ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है और हर जगह पाए जाने वाले अधिकांश छोटे निजी प्रशिक्षण केंद्रों में तकनीकी प्रशिक्षण आश्चर्यजनक रूप से उपलब्ध हैं। इन संस्थानों ने अगर अवसरों के द्वार खोले हैं, तो हाशिये के छात्रों के लिए जोखिम भी बढ़ाया है।
आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी कुशलता पर भारत का ध्यान नई बात नहीं है। इसकी जड़ें राष्ट्र की नेहरूवादी तकनीकी दृष्टि में छिपी हैं। 1960 के दशक में ही तकनीकी शिक्षा के लिए इन योजनाओं के अभिन्न हिस्से के रूप में संस्थानों की स्थापना की गई थी। सबसे प्रसिद्ध भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) दुनिया के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में गिना जाता है और नियमित रूप से अपने पूर्व छात्रों को दुनिया भर के श्रेष्ठ तकनीकी संस्थानों में काम करने के लिए भेजता है। हालांकि इनमें शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों का प्रतिशत अत्यंत कम है। इसके अलावा, हालिया अध्ययनों के मुताबिक, प्रौद्योगिकी उद्योग में अपनी जगह बनाने वाले ज्यादातर लोग सवर्ण हिंदू और समाज के उच्च वर्गों से संबंध रखते हैं।
भारत में सूचना प्रौद्योगिकी छात्रवृत्ति पर वर्चस्व रखने वाले बड़े संस्थानों और बड़ी तकनीकी कंपनियों से परहेज करते हुए मैंने 2014 से 2016 के बीच हैदराबाद के निकट दो संस्थानों में पंद्रह महीने तक नृवंशविज्ञान पर शोध किया। मैंने अपने अध्ययन में उन संस्थानों का उल्लेख किया, जो कंप्यूटर से संबंधित एक से छह महीने का बुनियादी प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण (टाइपिंग, माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस, बुनियादी एकाउंटिंग सॉफ्टवेयर का परिचयात्मक पाठ्यक्रम) देते हैं। ये कंप्यूटर पाठ्यक्रम उन पाठ्यक्रमों से अलग हैं, जो वेब डेवलपमेंट जैसे उच्च स्तरीय प्रशिक्षण देते हैं। इस तरह के बुनियादी पाठ्यक्रम काफी लोकप्रिय हैं, जिनमें निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर के छात्र हिस्सा लेते हैं। इन छात्रों को बताया जाता है कि कई शुरुआती स्तर की नौकरियों के लिए कंप्यूटर प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र आवश्यक होगा। ऐसे पाठ्यक्रम छोटे एवं निजी स्तर के संस्थानों, स्वयंसेवी संगठनों और बड़े निगमों द्वारा संचालित किए जाते हैं। इन संस्थानों की गुणवत्ता भी एक जैसी नहीं होती। हालांकि वे सरकार द्वारा विनियमित पाठ्यक्रम चलाते हैं, पर इन संस्थानों की शिक्षण शैली, करियर सलाह और सोशल नेटवर्किंग बहुत भिन्न होती है।
इन सर्टिफिकेट कोर्सों के लोकप्रिय होने का एक कारण निजी कॉलेजों का विस्तार और कॉलेज की डिग्रियों का महत्व घटना भी है। हैदराबाद में कॉलेजों के निजीकरण का इतिहास इन बुनियादी प्रशिक्षण संस्थानों के उभार और प्रमुखता को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। इससे यह भी पता चलता है कि कैसे वर्ग, धर्म, जाति और लिंग उच्च शिक्षा और रोजगार बाजार में अपनी जगह बनाते हैं। इन प्रशिक्षण केंद्रों में कई ऐसे छात्रों से मेरी भेंट हुई, जिन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की थी। पहले मुझे हैरानी हुई कि टेक्नोलॉजी में स्नातक की डिग्री लेने के बाद इन छोटे संस्थानों से प्रशिक्षण लेना क्या जरूरी है, पर जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि बड़े संस्थानों से डिग्री हासिल करने के बाद ऐसा अक्सर होता है।
हैदराबाद में मेरे शोध ने यह दर्शाया कि विभिन्न फॉन्ट्स के साथ एक पोस्टर टाइप करने और बनाने में सक्षम होने के अलावा अन्य कौशलों, जैसे कल्पना से तथ्य का मूल्यांकन करना और इंटरनेट पर जानकारियां देखना भी हाशिये के समूहों के छात्रों के लिए आज की दुनिया और रोजगार बाजार में आगे बढ़ने के लिए महत्वपूर्ण है। कंप्यूटर शिक्षा की विचारधारा यह मानती है कि ऐसा कौशल प्राप्त करने वाला कोई भी व्यक्ति आर्थिक एवं सामाजिक रूप से बेहतर होगा, पर हम जानते हैं कि रोजगार का बाजार बेहद सामाजिक और असमान है। मेरा शोध दर्शाता है कि छात्रों के प्रौद्योगिकी के ज्ञान ने लिंग, धर्म, जाति के उनके अनुभवों को खत्म करने के बजाय उन्हें बढ़ाया।
अब्दुल्ला का ही उदाहरण लीजिए। उसने बीटेक किया था, पर कंप्यूटर और रोजगार का उसे बहुत अनुभव नहीं था। कंप्यूटर प्रशिक्षण के लिए वह शहर आया था। आधा प्रशिक्षण पूरा करने के बाद उसे नए बनाए ई-मेल एकाउंट के जरिये रोजगार की पेशकश की गई। नौकरी अमेरिका में थी और उसे कुछ महीनों में वहां जाना था। वह चाहता था कि मैं उसे आश्वस्त कर दूं कि उसका वेतन विदेश में रहने लायक पर्याप्त है या नहीं। मैंने उससे कहा कि जिस मेल के जरिये उसे रोजगार की पेशकश की गई, वह मुझे फॉरवर्ड कर दे। वह मेल देखते ही मैं समझ गई कि वह स्पैम (कई लोगों को भेजा जाने वाला संदेश) है। मियामी के बाहर एक क्रूज जहाज कंपनी में काम करने का प्रस्ताव था। मैंने उस कंपनी से संपर्क किया, तो उन्होंने इसकी पुष्टि की कि वह प्रस्ताव झूठा है और वे उस धोखे के बारे में जानते हैं। अब्दुल्ला ने स्पैम के बारे में नहीं सुना था। स्पैम भेजने वाले ने दिल्ली में एक फर्जी कार्यालय बनाया था। अब्दुल्ला की कहानी तो बस एक उदाहरण है, पर इससे साफ होता है कि इस तरह के बढ़ते खतरे से कमजोर वर्गों के छात्रों को बचाने के लिए व्यापक तकनीकी साक्षरता जरूरी है। अगर भारत सबको समान अवसर देना चाहता है, तो उसे 21 वीं सदी के लिए कंप्यूटर साक्षरता की परिभाषा का विस्तार करना होगा और कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्रों के पाठ्यक्रमों को विनियमित करना होगा।


लेखक - कैथरिन ज्योस्कोवस्की
(लेखिका वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में सोशियो कल्चरल एंथ्रोपोलॉजी में डॉक्टरेट कर रही हैं।)
साभार - अमर उजाला
                                        

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