उत्तराखंड सरकार ने जिस तरह से पहली कक्षा से ही सभी सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम लागू करने की घोषणा कर डाली, उससे वह हिन्दी प्रेमियों की कोपभाजन बन गई है। उसे ऐसा निर्णय क्यों करना पड़ा? इसका बेहतर उत्तर हमें स्वयं से मिल जाएगा। हम अपने बच्चों को स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं। पिछले सत्तर वर्षों में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता ही गया है। चूंकि नौकरी अंग्रेजी से ही मिलती है, इसलिए हर व्यक्ति चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेजी माध्यम में पढ़ें।
वैज्ञानिक अनुसंधान कहते है कि बच्चे को प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए। दुनिया के सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय वाले देशों की राजभाषा और जनभाषा में कोई अंतर नहीं है। सबसे गरीब देशों में ही भाषा का ऐसा दोहरापन है। माइक्रोसाॅफ्ट में काम कर चुके विशेषज्ञ संक्रांत सानु की हाल में छपी पुस्तक द इंग्लिश मीडियम मिथ इसी ओर इशारा करती है। वह कहते हैं, ‘तुर्की में हुए अध्ययनो में कहा गया है कि मातृभाषा में विज्ञान पढ़ने वालों की तुलना में विदेशी भाषा में विज्ञान पढ़ने वाले बच्चे भ्रम और गलतफहमी के ज्यादा शिकार होते हैं। साथ ही, वे विषय की मूल अवधारणा को भी ठीक से नहीं पकड़ पाते। इसी तरह भारत में भी शिक्षण की स्थिति पर निकलने वाली वार्षिक रिपोर्ट (एएसईआर) में भी आंध्र प्रदेश के निजी अंग्रेजी माध्यम स्कूलो की तुलना में तेलगु माध्यम के स्कूलों में गणित, विज्ञान और समाज विज्ञान की पढ़ाई के परिणाम से बेहतर रहे।‘
बावजूद इसके आजादी के बाद से हमारी सरकारें दोहरे चरित्र के साथ जी रही हैं।वे नहीं चाहती कि देश की भाषाएं उन्नति करें।
ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि इस मसले पर अभी तक केंद्र सरकारों ने चुप्पी साधे रखी। उनकी जिम्मेदारी बनती थी कि देश में एक भाषा नीति लागू हो। बीती सदी के सत्तर के दशक में आए कोठारी आयोग ने त्रिभाषा सूत्र दिया, पर उसे लागू नहीं होने दिया गया। नतीजन शिक्षा में एक बड़ी खाई बन गई। पंजाब, जम्मू-कश्मीर या दक्षिण भारत के कुछ राज्यों ने अपने स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम ही रखा। दिल्ली में नवयुग स्कूल, प्रतिभा विकास विद्यालय जैसे प्रयास इसी का नतीजा हैं। उत्तराखंड में पिछली कांग्रेस सरकार भी ‘उन्नति‘ नाम से अंग्रेजी सिखाने का प्रोजेक्ट किसी निजी कंपनी को देने जा रही थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी आते ही प्राइमरी स्कूलों में अंग्रेजी शुरू करने की घोषणा कर दी थी। जो संस्थाएं विशुद्ध भारतीय विचारों के साथ शुरू की गई थीं, उन्होंने भी वक्त की चाल को देखकर अंग्रेजी माध्यम अपना लिए। लिहाजा राज्य सरकारों पर दबाव पड़ने लगा कि वे भी अपने स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम अपनाएं। पंजाब सरकार जल्दी ही पंजाबी या हिंदी माध्यम वाले चार सौ स्कूलों को अंग्रेजी माध्यम करने जा रही है।
जब राष्ट्रीय स्तर पर यह मान लिया गया है कि अंग्रेजी ही श्रेष्ठ माध्यम है, तो कोई सरकार अपने बच्चों को क्यों इससे वंचित करे? दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने तो बकायदा अंग्रेजी को दलितों की देवी करार दिया और उसका मंदिर बनवा दिया। राज्य सरकारें आज जिसे तरक्की की राह समझ रही हैं, वह भविष्य में और भी भ्रमित बच्चे तैयार करेगी। बेहतर होगा कि वे अंग्रेजी माध्यम के बजाय अंग्रेजी विषय को तवज्जो दें। अंग्रेजी माध्यम आत्मघाती निर्णय होगा।
लेखक - गोविन्द सिंह
साभार - अमर उजाला
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