विदेशों का रूख करते भारतीय छात्र

एक समय था जब उच्चत्तम ज्ञानार्जन के आकांक्षी सुदूर देशों से भारत में जग प्रसिद्ध नालंदा , तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों में आते थे किंतु देश में आज विश्वस्तरीय शिक्षा व अनुसंधान के लिए केवल गिने चुने ही संस्थान हैं। गुजरी सदियों में देश के मेधावी शिक्षार्थियों व शोधार्थियों की संख्या कई गुना बढ़ी है, क्योंकि उच्चतर शिक्षा व शोध के आकांक्षियों की संख्या के अनुपात में आईआईटी और आईएमएस, आॅल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेज (एम्स), टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडा मेंटल रिसर्च जैसे विश्वस्तर के प्रतिष्ठानों में उपलब्ध सीटें बहुत कम हैं। इन संस्थानों में विज्ञान, इंजीनियरिंग , मेडिसिन , टेक्नोलाॅजी व इनसे संबंधित क्षेत्रों में उच्चतर शिक्षा के लिए प्रवेश ही भारी चुनौती हैं। देश में सामजिक विज्ञान और मानविकी विज्ञान की उच्चतर शिक्षा के प्रतिष्ठानों को विश्वस्तर की मान्यता प्राप्त नहीं है। यहीं कारण है कि देश के तीक्ष्ण, बुद्धि , कर्मठ और महत्वाकांक्षी युवा विदेशोन्मुख हैं, जहां आधुनिकतम ज्ञानार्जन और अनुसंधान के प्रचुर साधनयुक्त वांछित संस्थान में प्रवेश भी अपेक्षाकृत आसान हो गया है। अमेरिका के अलावा जर्मनी, कनाडा, आस्ट्रेलिया और यूनाइटेड किंगडम में पढ़ाई करने के आकांक्षियों की संख्या बढ़ी है।
टमेरिकी लेखक व शोधशास्त्री , फिलिप ऐल्टूबैक, अमेरिका में हावर्ड , बर्कले, स्टैनफर्ड और मेडिसन यूनिवर्सिटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों तथा चीन , मलेशिया और सिंगापुर की युनिवर्सिटीज से सम्बद्ध रहने के अलावा बम्बई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में फुलब्राइट रिसर्च प्रोफेसर रह चुके हैं। उनके अनुसार स्नातकोत्तर शिक्षा के आकांक्षी पहले से अधिक संख्या में विदेशोन्मुख हैं, क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था को हाईटेक क्षितिज पर स्थापित करने की महत्वाकांक्षा वास्तविकता के ठोस धरातल पर नहीं टिक पाई है। देश में उच्च शिक्षा व अनुसंधान का क्षेत्र अत्यधिक रूप से विनयमित और आर्थिक रूप से अभावग्रस्त होने के कारण भारत में विदेशी डिग्री का मूल्य स्वदेशी डिग्री से अधिक आंका जाता है।
इस धारणा का आधार केवल वर्गदंभ नहीं है। विदेशी यूनिवर्सिटीज की प्रतिष्ठा और ख्याति प्राप्त प्राध्यापकों और शोधशास्त्रियों की लगन और निष्ठा के बल पर अर्जित होती है। उद्यमी युवाओं को उदार साधनों और अपरिमित अवसरों का आकाश विश्वस्तर के विदेशी संस्थानों में मिलता है। इसके अलावा वहां विभागों में खुलेपन का एक विशिष्ट कल्चर सम्पूर्ण माहौल को उच्च अध्ययन और शोध के अनुकूल बनाता है और अध्ययनकर्ताओं की मानसिकता को परिष्कृत करता है। अर्दली चपरासी परंपरा विहीन वातावरण में वरिष्ठ साइंटिस्ट और फैकल्टी सदस्य स्वयं काफी बनाकर पीते, पिलाते और फाइलें वगैरह खुद उठाते धरते हैं।
बिल गेट्स , स्टीव जाब्स, माइकल जकरबर्ग आदि जैसे कालेज ड्राप आउट्स बिरले हैं, जो आधुनिक टेक्नालोजी में अपना साम्राज्य जमा सकें। उन्होंने भी आधुनिक उच्च शिक्षा के उत्थान के लिए करोड़ों डाॅलर का अनुदान दिया है। बात घूम फिरकर वहीं आती है कि एडवांस्ड टेक्नालोजी के बल पर इलेक्ट्राॅनिक उपकरणों का तिलिस्म धमाका अवश्य मचा सकता है, किन्तु मानव जाति का कल्याण व उत्थान मूल विज्ञान, टेक्नालोजी , इंजीनियरिंग व सामाजिक और मानविकी विज्ञान में अग्रवर्ती शिक्षा व शोध के बल पर ही हो सकता है। आधुनिक टेक्नोलाॅजिकल प्रतिस्पर्धा में चीन शेष एशियाई देशों की तुलना में अधिक महत्वाकांक्षी हैं। विदेश में शिक्षित चीनियों को स्वदेश वापसी के लिए प्रबल प्रोत्साहन दिए जाते हैं। परिणामस्वरूप चीन में शिक्षा और शोध संस्थान धीरे धीरे विश्वस्तर की मध्य रेखा के निकट पहुंचने लगे हैं।
भारतीय मूल के विद्यार्थियों और शोधार्थियों की एक भिन्न छवि भी उभर रही है। वर्ष 1960 या इससे कुछ पहले विदेश में उच्च शिक्षा को लेकर प्रतिष्ठित पदों पर आसीन वैज्ञानिक, इंजीनियर और शिक्षाविद देख रहे हैं। कि भारत से आने वाले विद्यार्थियों में विद्यार्जन के प्रति अब वैसी तीव्र आकांक्षा नहीं है, जैसी उनमें थी। उनके समय में भारत के मध्यम वर्ग के पास न आज के जैसी खर्च करने वाली आय थी, न उतनी हैसियत। भारत की विद्यामूलक संस्कृति में मूलभूत परिवर्तन की घोर आवश्यकता है, ताकि हर स्तर पर गुण व योग्यता ही प्रथम व परम रहे। तभी देश में उच्च शिक्षा व अनुसंधान के संस्थानों को विश्वस्तरीय मान्यता प्राप्त होगी। तभी शायद वे नालंदा , तक्षशिला और विक्रमशिला के समय का गौरव पुनः पा सकें, जिसमें शिक्षा लक्ष्यप्राप्ति का केवल साधन नहीं सम्पूर्ण साधना थी।
इंदिरा मितल
साभार- अमर उजाला

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