महात्मा गांधी गुजरात के थे? हां भी, नहीं भी! इंसानों में कोई-कोई ऐसे होते हैं कि किसी भी नाप में बैठते नहीं हैं और तब आपको अपने पैमाने बदलने पड़ते हैं। लेकिन कहने वाले कहेंगे कि गांधी जन्मे थे गुजरात में, तो वह गुजरात के थे। यह भी सही है कि एक नहीं, गुजरात में अनेक स्थान हैं, जिनसे गांधी जी का नाता रहा है। क्या उन सारे स्थानों को हम गांधी जी के नाम पर श्शून्यवतश् रख सकते हैं? रखना चाहिए?
यह सवाल पूछना जरूरी इसलिए हो गया है, क्योंकि राजकोट स्थित उस स्कूल के बंद किए जाने की खबर आई है, जिसमें गांधी जी की स्कूली पढ़ाई हुई थी। वहां की नगरपालिका ने फैसला किया है कि इस स्कूल को बंद कर दिया जाए और इसकी जगह गांधी-स्मृति जैसा कोई म्यूजियम बनाया जाए। क्या यह स्कूल अपने आप में गांधी की स्मृति नहीं था? यह वह स्कूल था, जिसे राजकोट आनेवाला हर वह आदमी, जिसे गांधी से लगाव रहा हो, देखने जाता था।
वहां गांधी कहीं भी नहीं थे, लेकिन वह धरती थी, जिस पर किशोर गांधी चला था, वह हवा थी, जो उसे छूकर बही थी, वे दीवारें थीं, जिन्होंने उसे किशोर वय में देखा था। वर्षों पहले जब मैं राजकोट गया था और मैंने उस स्कूल को देखने का आग्रह किया था, तब मेजबानों को मेरी बात में कोई तुक नजर नहीं आया था, श्लेकिन गांधी वाला और क्या देखना चाहेगाश्-जैसी सहमति बनाकर वह मुझे वहां ले गए थे। मैंने बहुत तन्मयता और प्यार से वह स्कूल, उसका वह बरामदा और वहां लगी मोहनदास की मार्क्सशीट देखी थी। मैंने बच्चों से जानना चाहा था कि क्या वे कुछ खास महसूस करते हैं कि यह वही स्कूल है, जिसमें महात्मा गांधी भी कभी पढ़ते थे। हां, वे सब जानते थे, लेकिन श्महसूसश् कुछ नहीं करते थे। मेरा मन तब भी छोटा हुआ था और कहीं से यह आवाज उठी थी कि यह लंबा चलेगा नहीं।
गांधी होते, तो पहले हमसे ही पूछते कि उनके सारे रचनात्मक कामों की यहां-वहां कब्रगाह क्यों बन गई? वह हमसे पूछते कि उनके आश्रमों का जनाजा क्यों निकल रहा है? गांधी जी के स्मृति चिह्नों और उनके चश्मों को लेकर हाहाकार करने वालों को यह बताने की जरूरत है कि जो खोया है, वह चश्मा नहीं है, वह नजर ही खो गई है, जो जान की कीमत देकर गांधी ने पैदा की थी। गुजरात की राष्ट्रीय शालाओं का क्या हाल है? उन दो विद्यापीठों का क्या हाल है और उनमें कहां, कितने गांधी खोज सकते हैं आप?
तीन सवाल, जिनके लिए गांधी जिए और मरे, वे थे हिंसा की निरर्थकता समझने वाला समाज बने, सांप्रदायिक सद्भाव उस समाज की चालक शक्ति बने और सारे गांव इस कदर स्वावलंबी बनें कि ऊपर की तमाम प्रशासनिक व्यवस्थाओं का नियमन कर सकें। इन तीन मोर्चों पर यह देश आज कहां खड़ा है? वह खड़ा नहीं है, तेजी से पीछे की ओर लौट रहा है। उसकी यह उल्टी यात्रा गांधी वालों की सामूहिक विफलता की गवाही देती है, जो किसी स्कूल के बंद होने से कहीं ज्यादा गंभीर है।
राजकोट का अल्फ्रेड इंग्लिश हाई स्कूल गांधी की कल्पना का स्कूल नहीं था। वहां से पढ़कर जो मोहनदास निकला, वह आगे के वर्षों में शिक्षा की इस शैली का और इसके उद्देश्यों का गहरा आलोचक बना। इसलिए अपने आंतरिक व आर्थिक कारणों से यह स्कूल बंद होता है, तो इससे महात्मा गांधी का अपमान नहीं होता। महात्मा गांधी के श्अपने सारे स्कूलश् भी बंद हो रहे हैं, उनकी जिम्मेदारी हमारी है और उसमें हमारा अपमान होता है, यह हमें याद रखना चाहिए।
लेखक - कुमार प्रशांत
साभार - अमर उजाला
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