वैसे किताबें कहीं गई भी नहीं थीं । कुछ विश्लेषण थे, कुछ भविष्यवाणियां थीं, आशंकाएं-उम्मीदें थीं, जिनके चलते लगभग एक दशक पहले किताबों के विदाई-गीत बनने लगे थे। हमारे यहां गीतकार गुलजार ने भी इस पर एक लंबी कविता लिखी थी। कुछ लोगों ने तो इसके भी आगे बढ़कर बाकायदा किताबों को श्रद्धांजलि देनी शुरू कर दी थी। कहा जाने लगा था कि अब पढ़ाई और अध्ययन का भविष्य ई-बुक हैं। तरह-तरह केई-बुक रीडर भी बाजार में आ गए- किंडल, नूक, कोबो। शुरू में ये जरूर महंगे थे, लेकिन जैसा कि तकनीक के मामले में होता है, बहुत जल्द ये सस्ते व काफी सस्ते होने लग गए। इतना ही नहीं, टैबलेट का चलन शुरू हुआ, तो लोगों को पढ़ने का एक विकल्प मिलता दिखाई दिया। किताबों के ई-संस्करणों की बाढ़ भी बाजार में आ गई। ये सस्ते भी थे और इंटरनेट के चलते तुरंत उपलब्ध भी। और तो और, किताबों के ऐसे फॉर्मेट भी बाजार में आ गए, जिन्हें आते-जाते कहीं भी आप अपने मोबाइल पर पढ़ सकते थे। यह सब इतनी तेजी से हुआ कि सबको सहज ही विश्वास हो गया कि कागज पर छपी किताबों के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। कुछ पर्यावरण प्रेमियों ने तो बाकायदा यह गणना भी शुरू कर दी कि अगर कागज पर छपने वाली किताबें बंद हो गईं, तो हर साल कितने पेड़ बचाए जा सकेंगे।
इसी उत्साह के माहौल में कुछ अलग तरह की खबरें भी आने लगीं। सबसे पहली निराशा तो लेखकों में दिखाई दी। उन्हें प्रति के हिसाब से रॉयल्टी मिलती है, ई-संस्करण की कीमत कम थी, इसलिए उन्हें मिलने वाली रकम कम होने लगी। ऐसी कोई संभावना भी नहीं दिखी कि कम कीमत के कारण पाठक संख्या बढ़ जाएगी। उल्टे यह खतरा जरूर था कि पायरेसी के कारण ज्यादा पाठक होने के बावजूद बिकने वाली ई-प्रतियां शायद कम ही हो जाएं। ई-बुक का चलन साल 2006 के आस-पास शुरू हुआ था, वर्ष 2012 आते-आते यह बाजार ठंडा पड़ने लगा।
ई-बुक रीडर बेचने वाली जो कंपनियां कुछ समय पहले तक पश्चिम के बाजारों की मांग पूरी करने के लिए जूझ रही थीं, वे भारत जैसे बाजारों में किस्मत आजमाने लग पड़ीं। इस बीच ये खबरें भी आईं कि छपी हुई किताबों के बाजार में आ रही गिरावट भी थम गई। इलेक्ट्रॉनिक अक्षरों से आंखें मिलाने वाले बहुत से लोग पन्ने पलटने के अपने अनुभव की ओर लौट आए। पिछले दिनों प्यू रिसर्च सेंटर ने अपने अध्ययन में पाया कि 2012 से लेकर अब तक ई-बुक पढ़ने वालों में एक प्रतिशत की कमी आई है। दूसरी तरफ, इस दौरान छपी हुई किताबें पढ़ने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है। इस अध्ययन के सामने आने के बाद अब उसी मीडिया में ई-बुक को श्रद्धांजलि दी जाने लगी हैं, जिनमें कुछ साल पहले छपी हुई किताबों को दी गई थी।
हालांकि यह भी एक ज्यादती ही है। कागज पर छपी किताब पढ़ने का एक फॉर्मेट है, जो सदियों से हमारी आदत और हमारे संस्कारों का हिस्सा है, जबकि ई-बुक एक दूसरा फॉर्मेट है, ऑडियो बुक तीसरा फॉर्मेट है। ये सभी फॉर्मेट एक साथ चलते रहेंगे। खासकर ई-बुक के लिए कोई बड़ा खतरा अभी नहीं है। बहुत सी किताबें हैं, जो अब ई-फॉर्मेट में ही उपलब्ध हैं, खासकर ऐसी प्राचीन किताबें, जिनका बाजार बहुत कम है, इसलिए अब उन्हें कोई छापना नहीं चाहता। इंटरनेट पर वे मुफ्त में उपलब्ध भी हैं। ई-बुक छात्रों के लिए भी उपयोगी पाई गई हैं। फिर भी, छपी हुई किताबों ने अपनी ताकत साबित कर दी है। यह पहली बार हुआ है कि कोई नई और क्रांतिकारी तकनीक आई और बाजार पर छा गई, लेकिन कुछ ही दिनों के बाद पुरानी तकनीक ने उसे मात दे दी।
साभार- हिन्दुस्तान हिन्दी दैनिक
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