काम तो बाबा साहब की सोच के उलट ही हो रहा है

अंबेडकर ने जो तीन नारे दिए थे, उनमें खास था ‘शिक्षित बनो’। सरकारों का काम था कि वे जनता को शिक्षित करतीं, पर ज्यादातर सरकारों ने आम जनता को शिक्षित करने की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। गांव की प्राथमिक शिक्षा समाप्त हो गई, निजी स्कूलों के व्यवसायीकरण में शामिल हो राजनीति ने शिक्षा को बेचा और गुणकारी शिक्षा सभी बच्चों को उपलब्ध कराने का संकल्प भुला दिया। केंद्र से लेकर राज्यों तक में प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक में शिक्षा को माल की तरह बेचा जा रहा है। अंबेडकर सबको सस्ती और समान शिक्षा चाहते थे। आजाद भारत की एक-दो पंचवर्षीय योजनाओं में सबको साक्षर कर देना चाहिए था। पर निरक्षरता उन्मूलन करना अब भी दिवास्वप्न बना हुआ है। देश की शिक्षा का स्वास्थ्य यदि खराब है, तो समझो कि सब कुछ खराब है। कला, साहित्य, समाज, सुरक्षा, अर्थ और राजनीति, सब कुछ अस्वस्थ है।
अंबेडकर ने अंग्रेजी विद्या को शेरनी का दूध कहा था। उन्होंने यह भी कहा था कि देश के स्वराजवादी नेताओं ने अंग्रेजी विद्या रूपी शेरनी का दूध जिस अनुपात में पिया, वे ब्रिटिश राज के खिलाफ उसी अनुपात में अधिक दहाड़े। इसी विद्या ने भारतीयों के दिल में स्वराज पाने की इच्छा को अधिकाधिक बलवती बनाया। आज उत्तर प्रदेश की सरकार यदि पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने के प्रयास कर रही है, तो वह अंबेडकर के विचारों के अनुकूल काम कर रही है। यह काम दशकों पहले हो जाना चाहिए था। पर आम दलित बच्चों को गुणकारी अंग्रेजी शिक्षा देना तो दूर, उन सरकारी स्कूलों की उपेक्षा कर दी गई, जहां वे जा सकते थे। सरकारें, खासकर ग्रामीण भारत की शिक्षा के प्रति आंखें बंद करके बैठ गईं। ऐसे लोगों को शिक्षा विभाग सौंप दिए गए, जो स्वभाव से शिक्षा विरोधी थे।
इस शिक्षा-व्यवस्था ने अंग्रेजी ही नहीं, दलितों के लिए मातृभाषा तक में शिक्षा दुर्लभ कर दी। सरकार यही कहती रही कि अगर दलित महंगी निजी शिक्षा नहीं खरीद सकते, तो सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाएं, जबकि इस बीच लाख से अधिक सरकारी स्कूल अकाल मृत्यु के घाट उतारे जा चुके हैं, बचे-खुचे मरणासन्न अवस्था में अंतिम सांसें गिन रहे हैं। वे स्कूल दलित बालकों की शिक्षा का भविष्य कैसे बचा पाएंगे? इस समय केवल दिल्ली सरकार का यह दावा सुनने को मिल रहा है कि हम प्राइवेट से बेहतर सरकारी स्कूल बना रहे हैं। इसलिए इस तर्क में काफी दम है कि ज्ञान का व्यवसायीकरण दलितों को समता रूपी स्वातंत्र्य से दूर रखने के इरादे से किया गया है। सबसे अधिक निरक्षर बच्चे दलितों के हैं। उनमें जो लोग शिक्षित हैं भी, उनके पास आत्मनिर्भर बनने योग्य या अच्छा रोजगार पाने योग्य गुणवत्ता वाला ज्ञान नहीं है। पांच से 15 साल के करोड़ों दलित बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देख पाते हैं। वे सामाजिक रूप से पराश्रित और देश के विकास में हाथ बटाने लायक नहीं बन रहे।
राजनीतिक कारणों से व्यवस्था के लिए अंबेडकर जरूरी और मजबूरी भले बने हुए हों, पर काम उनकी इच्छा के ठीक उलट ही हो रहे हैं। उन्होंने कहा था कि ‘समय आ गया कि प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक सस्ती, गुणकारी शिक्षा दलितों व कमजोर वर्गों को सुलभ कराई जाए। दलितों के दुख बढ़ते ही जा रहे हैं। नतीजा यह है कि राष्ट्र सामाजिक रूप से महाशक्ति बनना तो दूर, आत्मनिर्भर भी नहीं बन पा रहा है। जो लोग अंबेडकर की संविधान-सेवा को कम आंकते हैं, उन्हें बाबा साहब अंबेडकर का 1947 में प्रकाशित स्टेट्स ऐंड माइनोरिटीज पढ़नी चाहिए। यह एक मसविदा था, जिसके बारे में उन्होंने 1942 में नागपुर में हुए ‘डिप्रेस्ड क्लासेज’ के सम्मेलन में बताया था और दलित फेडरेशन की ओर से ज्ञापन के रूप में भी प्रस्तुत किया था।
क्या यह विडंबना नहीं कि गुलाम भारत में बालक अंबेडकर जिस तरह की अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सके, करोड़ों दलित बच्चों को वैसी शिक्षा आजाद भारत की सरकारें नहीं दे पा रही हैं। उनके पिता अंग्रेज सेना में सूबेदार थे। इसलिए बाल्यकाल में आम दलित की अपेक्षा कम कठिनाई सही। लेकिन आगे चलकर उन्हें जरूर वर्ण-व्यवस्था के प्रभावी होने के कारण समय-समय पर बहिष्कार और अस्पृश्यता के दंश झेलने पड़े। उन्हें जो माहौल मिला दलित बच्चों को आज वह भी नहीं मिल रहा, जबकि लक्ष्य उससे आगे जाने का होना चाहिए था।


                                            लेखक - श्योराज सिंह बेचैन
                                            (साहित्यकार व प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय)
                                            सौजन्य - हिन्दुस्तान

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