सरकार ने नेशनल टेस्टिंग सर्विस स्थापित करने का निर्णय लिया है। फिलहाल छात्र दो संकटों से जूझ रहे हैं। पहला संकट विभिन्न विश्वविद्यालयों और राज्य शिक्षा बोर्डों द्वारा दिए जाने वाले प्रमाणपत्रों की विश्वसनीयता से जुड़ा है। एक छात्र किसी विश्वविद्यालय से 50 प्रतिशत अंक प्राप्त करता है। वहीं एक अन्य छात्र दूसरे विश्वविद्यालय से 80 प्रतिशत अंक हासिल करता है। चूंकि प्रश्न पत्र आसान है या फिर नकल की सुविधा है ऐसे में लचर विश्वविद्यालय के अच्छे छात्र की तरक्की के रास्ते बंद हो जाते हैं, क्योंकि बाजार में उसकी डिग्री की विश्वसनीयता नहीं रह पाती। दूसरा संकट निजी विश्वविद्यालयों का है जहां शिक्षा का स्तर खराब होने से डिग्री भी घटिया दी जाती है जबकि छात्रों से ये भारी शुल्क वसूलते हैं। साथ ही छात्रों को इन विश्वविद्यालयों द्वारा दी जा रही डिग्रियों की सत्यता का भी भान नहीं होता। वह दाखिला ले लेता है और पास भी हो जाता है, लेकिन प्लेसमेंट यानी नौकरी हासिल करने में नाकाम रहता है। इन दोनों संकटों का समाधान नेशनल टेस्टिंग सर्विस के माध्यम से निकल सकता है। इस संस्था द्वारा पूरे देश में एक ही स्तर की परीक्षा ली जाएगी। देश के सभी विश्वविद्यालयों के स्नातक इस परीक्षा में भाग ले सकेंगे। मेरे एक जानकार ने कानपुर विश्वविद्यालय से बीएससी की डिग्री हासिल की। उन्होंने मन बनाया कि आगे की पढ़ाई के लिए वे अमेरिका जाएंगे, मगर अमेरिकी विश्वविद्यालय के लिए उस डिग्री का आकलन करना कठिन था। लिहाजा उन्हें अमेरिका में एजुकेशनल टेस्टिंग सर्विस की परीक्षा में बैठने के लिए कहा गया। इसमें उत्तीर्ण होने के बाद ही वह अमेरिकी विश्वविद्यालय में प्रवेश ले सके। ऐसा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि अमेरिकी विश्वविद्यालय को अपनी परीक्षा की गुणवत्ता पर भरोसा था।
भारत में भी इसे अपनाया जा सकता है ताकि विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्र एक ही परीक्षा के माध्यम से अपनी क्षमताओं का प्रमाणपत्र ले सकें। किसी निजी विश्वविद्यालय में दाखिले की तैयारी का उत्सुक छात्र देख सकेगा कि उक्त परीक्षा में विश्वविद्यालय ने कैसा प्रदर्शन किया? ऐसे में वह विश्वविद्यालय के दावों से भ्रमित नहीं होगा। शिक्षा के बढ़ते निजीकरण से हो रही गड़बड़ियों से इस पर अंकुश लगेगा, मगर इस एकल परीक्षा में भी दूसरे संकट विद्यमान हैं। प्रस्तावित नेशनल टेस्टिंग सर्विस का ढांचा भी अमेरिका की एजुकेशनल टेस्टिंग सर्विस की तर्ज पर ही बनाने की योजना है। अमेरिका के वेस्ट वर्जिनिया विश्वविद्यालय ने एजुकेशनल टेस्टिंग सर्विस के बारे में कहा है, ‘मौजूदा निष्प्रभावी सत्यापन व्यवस्था के कारण शैक्षिक खर्च बढ़ गए हैं और आविष्कार दब गए हैं।’ शोधकर्ताओं का कहना है कि समूची शिक्षा व्यवस्था का पूरा ध्यान एजुकेशनल टेस्टिंग सर्विस परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करना रह गया है। शिक्षा में नई सोच एवं लचीलेपन का अभाव हो गया है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में हर साल छात्रों द्वारा संस्थान को एक मांग पत्र दिया जाता है। छात्रों की प्रमुख मांग थी कि परीक्षा संस्कृति को ही समाप्त किया जाए, क्योंकि इससे स्वतंत्र चिंतन बाधित हो रहा है। मेरे आकलन में यह समस्या उच्च शिक्षण संस्थाओं में ज्यादा प्रभावी है। सामान्य छात्र के लिए स्वतंत्र चिंतन से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उसकी शिक्षा और क्षमता का सच्चा प्रमाणीकरण हो। उच्च श्रेणी के छात्रों के लिये संभव होना चाहिए कि परीक्षा में अच्छे अंकों के साथ वे स्वतंत्र चिंतन को तरजीह दें।
इसका समाधान प्रश्नों के आकार से निकल सकता है। उच्च शिक्षण संस्थाओं में अक्सर ‘टेक होम’ परीक्षा ली जाती है। छात्रों को प्रश्न पत्र घर ले जाकर हल करने के लिए दिए जाते हैं। उन्हें छूट होती है कि वे किताबों, इंटरनेट या किसी अन्य मदद से उन्हें हल करें। मसलन पूछा जा सकता है कि ‘यदि भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत न होता तो भारत की राजनीति कैसी होती?’ ऐसे प्रश्नों का उत्तर किसी पुस्तक में नहीं मिल सकता है। ऐसे प्रश्नों के माध्यम से छात्र की चिंतन शक्ति का मूल्यांकन किया जा सकता है। इस समस्या का दूसरा समाधान अंकों के साथ-साथ ‘परसेंटाइल’ के रूप में परिणाम देने से निकल सकता है। जैसे किसी परीक्षा में एक लाख छात्रों ने भाग लिया तो उन्हें परसेंटाइल के जरिये परिणाम बताया जाए। इससे छात्र की क्षमता का तुलनात्मक मूल्यांकन हो जाता है और यह गौण हो जाता कि उसने कितने अंक हासिल किए हैं। प्रस्तावित नेशनल टेस्टिंग सर्विस में दूसरी समस्या पाठ्यक्रमों की विविधता की है। एक छात्र ने इतिहास पढ़ा है तो दूसरे ने रसायनशास्त्र। दोनों को एक ही परीक्षा में कैसे बिठाया जाए? तार्किक प्रश्नों के जरिये इसका समाधान निकाला जा सकता है। ऐसे प्रश्न पूछे जा सकते हैं जो किसी विशेष पाठ्यक्रम से नहीं जुड़े हों। आइआइएम के कॉमन एडमिशन टेस्ट में छात्रों की ऐसे ही परीक्षा ली जाती है। परीक्षा से छात्र की चिंतन शक्ति का मूल्यांकन किया जाता है न कि उसकी किताबी जानकारियों का।
प्रस्तावित व्यवस्था में तीसरी समस्या नौकरशाही एवं जड़ता की है। देश में विश्वविद्यालयों की खस्ता हालत के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी भी कम जिम्मेदार नहीं है। आयोग ने शिक्षकों की क्षमता का मूल्यांकन, पाठ्यक्रम में नवीनता, नए चिंतन इत्यादि पर ध्यान नहीं दिया है। प्रस्तावित नेशनल टेस्टिंग सर्विस में भी ऐसी ही जड़ता के प्रवेश करने की पूरी आशंका है। वेस्ट वर्जिनिया विश्वविद्यालय के जिस शोध का ऊपर हवाला दिया गया है उसने अमेरिकी प्रणाली के बारे में कहा है कि इसे लेकर एक कार्टेल यानी खेमा बन गया है जो यथास्थिति कायम रखना चाहता है। भारत में भी इसकी पुनरावृत्ति हो सकती है। प्रस्तावित संस्था ने यदि अपेक्षाओं के अनुरूप काम नहीं किया तो परिणाम और भी घातक हो सकते हैं। हमारे विश्वविद्यालय तो पहले से ही लचर हैं। ऐसे में अगर नेशनल टेस्टिंग सर्विस भी उसी तरह रटंत विद्या को ही वरीयता देगी तो छात्रों का बौद्धिक विकास और ज्यादा प्रभावित होगा। वर्तमान में एकल परीक्षा न होने के कारण कुछ विश्वविद्यालय अपने स्तर पर बेहतर काम कर रहे हैं। नई व्यवस्था के बाद उन्हें भी रटंत विद्या के आगे ही घुटने टेकने होंगे।
इस समस्या का समाधान आसान नहीं है। जहां एकल परीक्षा व्यवस्था की जरूरत है तो दूसरी तरफ इसके पतन का संकट है। एक समाधान यह हो सकता है कि एक के स्थान पर तीन या चार समांतर टेस्टिंग व्यवस्था बनाई जाएं। आज देशों की अर्थव्यवस्था की रेटिंग फिच, मूडीज, स्टैंडर्ड एंड पुअर्स जैसी कई स्वतंत्र संस्थाओं द्वारा समांतर प्रक्रिया में किया जाता है। लिहाजा एक के स्थान पर तीन या चार समांतर नेशनल टेस्टिंग सर्विस बनाई जा सकती हैं। सरकार स्वयं इन्हें स्थापित करने के स्थान पर निजी संस्थाओं को इन्हें स्थापित करने के लिये धन मुहैया करा सकती है। तब छात्र स्वतंत्र होंगे कि इनमें से किसका प्रमाण पत्र वे हासिल करना चाहते हैं। एक व्यवस्था जड़ हो गई तो दूसरी देश को डूबने से बचा सकेगी। इन रक्षात्मक कदमों के साथ नेशनल टेस्टिंग सर्विस को स्थापित करना चाहिए।
डॉ. भरत झुनझुनवाला
[ लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]
साभार- दैनिक जागरण
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