- भूपेश पंत-
इस जन आंदोलन ने उत्तराखंड को बहुत कुछ दिया। अपमान, पीड़ा, शहादत, उत्पीड़न और बलात्कार की नींव पर उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ और साथ ही मिली आंदोलन से उभरे नेताओं की नयी फौज। ये वो लोग थे जिनमें उत्तराखंड राज्य को लेकर भावनाओं का ज्वार था, कुछ सपने थे और व्यवस्था के प्रति एक आक्रोश था। सियासत में अधपके ये लोग सियासी दलों के खांटी नेताओं के लिये बहुत बड़ा खतरा थे जो नये राज्य के निर्माण में अपने लिये नयी संभावनाएं तलाश रहे थे। जो नेता जन आंदोलन की अगुवाई तक नहीं कर पाये वही नये राज्य की सियासत के सबसे बड़े सूबेदार बन कर अगली पंक्ति में जा खड़े हुए। नेताओं और नौकरशाहों के चमकते चेहरे अपनी सियासी और माली हालत में सुधार की पूरी गुंजाइश देख रहे थे। खतरा था तो बस उन नौजवानों और जागरूक बुद्धिजीवियों से, जो अपने सपनों के नये राज्य में पहाड़ के सुलगते सवालों का हल तलाश रहे थे। बस यहीं से शुरू हुई आंदोलन में भागीदारी के रिटर्न गिफ्ट बांटने की सियासत। नवोदित पर्वतीय राज्य के सियासी आकाओं ने आंदोलन से जुड़े लोगों को सहूलियतों, रियायतों, प्रमाणपत्रों और नौकरियों का झुनझुना दिखाना शुरू किया। ये वो सियासी दांव था जो और किसी भी नवोदित राज्य में नहीं चला गया। लोगों को भी लगा कि अगर सरकार उनके त्याग और बलिदान की कीमत चुका रही है तो इसमें बुरा क्या है। आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण के नाम पर लोगों को खेमों में बांट दिया गया। अपने अपने लोगों को आंदोलनकारी घोषित करने की औपचारिकता शुरू हुई। आंदोलन के दौरान मारे गये शहीदों के नाम पर स्मारक बना कर औपचारिकता पूरी कर दी गयी। सोचा ये जाना था कि नये राज्य के पुराने मुद्दों का हल कैसे मिले, पहाड़ की दुश्वारियां कैसे दूर हों और विकास के सपनों को कैसे साकार किया जाये। लेकिन आंदोलन की कोख से जन्मे आंदोलनकारी अपनी ऊर्जा इस बात पर खर्च करने लगे कि आंदोलन में भागीदारी की ज्यादा से ज्यादा कीमत उन्हें कैसे मिले और दूसरों को कैसे नहीं। पहाड़ के वास्तविक मुद्दों को पेंशन की रकम, चिह्नीकरण में आ रही दिक्कत, सम्मान पाने की होड़ और रियायतों की झड़ी से ढक दिया गया। जुझारू लोगों को सुविधाभोगी बनाने की साजिश रची गयी। वो आंदोलनकारी जो नये राज्य के बेहतर निर्माण में नींव के पत्थर बन सकते थे उन्हें एक ऐसे ढांचे के कंगूरे बना कर सजा दिया गया जिसकी नींव में भ्रष्टाचार, ऐय्याशी, शराब माफिया, खनन माफिया, भू माफिया और अपराध जैसी दीमकें आज भी रेंग रही हैं। सियासी दलों को अपने इस दांव से राहत भी मिली और रोजगार भी। कुछ आंदोलनकारी आज भी राज्य के मुद्दों को लेकर छिटपुट लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन स्वार्थों की सियासत न तो उन्हें एकजुट होने दे रही है और न ही मजबूत। राज्य आंदोलनकारियों के नाम पर हो रही सियासत का ये एक ऐसा भद्दा चेहरा है जो लोगों के त्याग और कुर्बानियों को सरकारी पलड़े में तोल कर उसकी बोली लगा रहा है। हैरानी की बात तो ये है कि सियासत के इस मकड़जाल में फंसे लोग खुद आगे बढ़ चढ़ कर अपनी बोली लगा रहे हैं। जैसे कि वो आंदोलन में कूदे ही थे ये सब पाने के लिये। ये जनांदोलन और उससे जुड़े सपनों की मौत नहीं तो और क्या है?
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